आधुनिकता पुरानी मान्यताओं एवं मूल्यों को तोड़कर अपनी एक अलग पहचान बनाने का प्रयास है। अर्थात् सामाजिक संरचना और मूल्यों से परिवर्तन के साथ एक सर्वथा नई विचारधारा का जन्म। ‘आधुनिकता’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘मॉडर्न’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है अभी-अभी घटी हुई घटना। आधुनिकता के केंद्र में मनुष्य है। और मनुष्य के आधुनिक होने का अर्थ ही यही है पुरानी मान्यताओं को नकारना। एडवांस होना। एकल परिवार में विश्वास रखना। धार्मिकता के झंझटों से मुक्त होना। अर्थात् गैर पाश्चात्य जगत पर पाश्चात्यीकरण का प्रभाव। इसकी प्रमुख विशेषताओं में स्वकेंद्रित बुद्धिवाद, ईश्वरीय सत्ता के प्रति अविश्वास, नगरीकरण, वैज्ञानिकता, सुखवाद, धर्मनिरपेक्षता, तर्कशीलता, भौतिकवाद आते हैं। संक्षेप में आधुनिकता मनुष्य को ऐसी स्वतंत्रता देता है जो न किसी पर निर्भर हो और न ही उत्तरदायी। जहाँ तक सवाल उत्तर आधुनिकता का है, तो यह आधुनिकता के बाद की सीढ़ी है। इसकी कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती। उत्तर आधुनिकता को रेखांकित करते हुए सुधीश पचौरी अपनी पुस्तक ‘उत्तरआधुनिकता: कुछ विचार’ में लिखते हैं – “आधुनिकता एक ऐतिहासिक मूल्यबोध और वातावरण के रूप में विज्ञान, योजना, सेक्युलरिज्म और प्रगति केंद्र जैसे विशेषणों को अर्थ देती रहती है, उत्तर आधुनिकता इनके सीमांतों का नाम है। इसलिए विज्ञान के मुकाबले अनुभव की वापसी, योजना की जगह बाजार की वापसी, सेक्युलरिज्म की जगह साम्प्रदायिक, जातिवादी, या स्त्रीवादी उपकेंद्रों की वापसी और मनुष्य-केंद्रित प्रगति की जगह प्रकृति केंद्रित विकास के बीच लगातर बहस जारी है।”[1] उत्तर आधुनिकता विचारों की समग्रता के स्थान पर विखंडन को महत्व देती है। वह समाज के उन प्रबुद्ध शोषकों की विचारधारा का विरोध करती है जो अपने ही समाज के निम्न वर्गों का शोषण कर रहे हैं। यही कारण है कि उत्तर आधुनिक साहित्य में दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों एवं आम आदमी की बातें अधिक हुई हैं।
ASSISTANT PROFESSOR BIHAR 44-84/2014
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Saturday, December 25, 2021
उत्तर आधुनिक काल विमोचन
जनसंचार के माध्यम का साहित्य स्वयं में उत्तर आधुनिक साहित्य है। यहाँ लेखकीयता, अद्वितीयता, मौलिकता, स्वायत्तता, भव्यता सब कुछ ख़त्म है। ऑनलाइन साहित्य इसका ज्वलंत उदाहरण है। यहाँ लेखक अपनी मन की बात बेरोक-टोक कह सकता है। आधुनिकता से कहीं आगे की चर्चा इसमें की गयी है। पाठक अपनी त्वरित टिप्पणी भी दे सकते हैं। सामाजिक चेतना व्यक्तिवादी चेतना का ही अगला चरण है जो हमें ऑनलाइन साहित्य में सुगमता से परिलक्षित हो जाता है। सामाजिक चेतना के विषय में दैनिक देशबंधु में परसाई जी लिखते हैं – “समाज में रहकर अपने को समाज का अंग समझना, समाज के उत्थान-पतन, सुख-दुख, गति-अवगति में साथ होना, पूरे समाज के उत्थान के बारे में सोचना और मानना कि समाज के उत्थान से व्यक्ति का उत्थान है, समाज की समस्याओं और संघर्षों को समझना तथा उसमें सहभागी होना यही सब सामाजिक चेतना है।”[2] तभी तो अनहदनाद चिट्ठाकार प्रियंकर उत्तरआधुनिक समाज के त्रस्त शोषित वर्ग से अपने को एकाकार करते हुए लिखते हैं –
“विलंबित विस्तार में
मेरे संगतकार हैं
जीवन के पृष्ठ-प्रदेश में
करघे पर कराहते बीमार बुनकर
रांपी टटोलते बुजुर्ग मोचीराम
गाड़ी हाँकते गाड़ीवान
खेत गोड़ते-निराते
और निशब्द
उसी मिट्टी में
गलते जाते किसान”[3]
उत्तरआधुनिक ऑनलाइन साहित्य में सामाजिक चेतना केवल दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासियों तक ही सीमित नहीं है वह तो सरकार की नीतियों, स्त्री-पुरुष संबंधों, पिता-पुत्र संबंधों, यौन संबंधों, तकनीकी, सांस्कृतिक, सामाजिक, दांपत्य, पारिवारिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, धार्मिक, शैक्षणिक मूल्यों के अतिक्रमण पर भी खुली बात करती है। तभी तो मेरे विचार मेरी अनुभूति में पुत्र के माध्यम से पिता को समझाते हुए चिट्ठाकार कालीपद प्रसाद लिखते हैं –
“आधुनिक परिवेश में पले, पढ़े, बढ़े
मॉडर्न होने का दावा करनेवाले
पुत्र ने थोड़ी देर पिता को गौर से देखा
फिर बोला
पापा मैं अब बड़ा हो गया हूँ
मैं अपना खयाल रख सकता हूँ
अपना भला-बुरा समझ सकता हूँ
यह जिंदगी मेरी है
मैं घूमूँ, फिरूँ, मौज-मस्ती करूँ
या एक ओर से
गले में फंदा डलवा लूँ
और उस घुंघटे से सदा के लिए
बंधा रहूँ
आपको क्या फरक पड़ता है?
जीना मुझे है
भुगतना भी मुझे है
आप चिंतित क्यों हैं।”[4]
उत्तरआधुनिक युवक-युवतियाँ अथवा नई पीढ़ी का मानव स्वतंत्र रहना चाहता है। ऐसी स्वतंत्रता जो अन्य किसी के प्रति उत्तरदायी न हो, न ही वे कोई ऐसा रिश्ता बनाना चाहते हैं, जो उनकी स्वतंत्रता में बाधक हो। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी नामक कविता में चिट्ठाकार कालीपद प्रसाद लिखते हैं –
“यह जिंदगी मेरी है
हर युवक, हर युवती का
आज यही बीज मंत्र है
सोचने समझने का नया ढंग है।
लड़कियाँ भी नहीं चाहती
एक खूंटे से बंधे रहना
----------------
जिंदगी मेरी है
इसमें किसी के
हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है।”[5]
उत्तरआधुनिक सामाजिक विमर्शों में स्त्रीविमर्श, समलैंगिक विमर्श, आदिवासी-दलित विमर्श स्वयं में प्रतिनिधित्वकर्ता हैं। वे विकेंद्रित साहित्य की सत्ता हैं। समाज के वर्चस्वशाली तबके के नीचे दबे हाशिए को ढूँढना ही उत्तर आधुनिकता है। चालू विमर्शों में सांस्कृतिक विषयों की कमियों को उजागर करना ही उत्तर आधुनिकता का चरित्र है। भारतीय परिवेश में स्त्री को पुरुष से कमजोर व कमतर माना जाता है। उसकी अवहेलना की जाती है। स्त्री यदि गर्भावस्था में है तभी उसका गर्भपात करा दिया जाता है। अपने समाज की यह एक सबसे बड़ी समस्या है। हिंदी कविता मंच के चिट्ठाकार ऋषभ शुक्ला हमें जीने दो नामक कविता में इसी सामाजिक समस्या के प्रति सचेत होकर बेटी (जो गर्भावस्था में है) के माध्यम से पिता को समझाते हुए लिखते हैं -
“पापा पापा मुझे जीने दो
मुझे आने दो
इस अद्भुत दुनिया की
एक झलक तो पाने दो।।
----
मैंने क्या किया है बुरा
जो तुम चाहते हो मारना
मैं तो अभी आयी भी नहीं
और तुम चाहते हो निकालना।”[6]
उत्तर आधुनिक समाज के केंद्र में पूंजी है। मनुष्य अपने हित-लाभ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। वह दूसरों के सुख-दुःख की चिंता नहीं करता। अपनी तिजोरियाँ भरने में ही पूरा जीवन बिता देता है। सामाजिकता की इन विसंगतियों से कवि का मस्तिष्क विचलित हो उठता है। वह यह कहने को मजबूर हो उठता है –
“एक चपरासी से लेकर अधिकारी तक
निजी से लेकर सरकारी तक
वकील से लेकर धर्माधिकारी तक
हो गए हैं सब भ्रष्ट, आम जनता है त्रस्त।”[7]
समाज में संचार माध्यमों की अलग भूमिका रही है। संचार माध्यम एक नवीन बाजार उत्पन्न कर रहा है। समाज में हो रहे भ्रष्टाचारों, व्यवहारों, विसंगतियों का खुला चिट्ठा है आज का अखबार। इन खबरों से जनता का मन ऊब चुका है। अखबार कविता के माध्यम से बवन पाण्डे अपने ब्लॉग पर समाज की इसी विसंगति का विरोध करते हैं। और वे ऐसे अखबार की आशा करते है जिसमें –
“सोचता हूँ
कब पढ़ पाऊँगा
अखबार ...
जिसमें न छपी हो
दुष्कर्म की कहानी
महंगाई की मार ....
हिंदू–मुस्लिम के बीच मार-काट की खबरें
जेब-कटाई की खबरें।”[8]
उत्तर आधुनिक समाज का प्रत्येक अंग, क्षेत्र, भाग सब कुछ पूंजी पर आश्रित है। पारिवारिक मूल्यों की बात हो अथवा शिक्षा, धर्म, प्रशासन की चर्चा करें सभी में धन ने अपनी घुस पैठ बना ली है। समाज का जो वर्ग प्रशासक है उसके पास धन सर्वसुलभ है। निम्न वर्ग अपने आर्थिक कारणों से दिन प्रतिदिन और पिछड़ता जा रहा है। पूंजी के सम्मुख किसी का कोई मूल्य नहीं। धार्मिक गुरु, शिक्षक, स्त्री-पुरुष, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षा, नेता, पुरस्कार सभी पर पूंजी का आधिपत्य है। कवि चिट्ठाकार नीरज कुमार अपनी कविता गाँव-मसान-गुड़गाँव में स्वयं की व्यक्तिगत चेतना को सामाजिक चेतना में रूपांतरित करते हुए कहते हैं –
“गाँव के स्कूल में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी
मास्टर साहब का ध्यान
अब पढ़ाने में नहीं रहता
देखते हैं गिर ना जाये
खाने में छिपकली
**********************
चढ़ावा ऊपर तक चढ़ता है तब जाकर कहीं
स्कूल का मिलता है अनाज।”[9]
एक अन्य चिट्ठाकार भूपेंद्र जायसवाल जी भी इसी सामाजिक विसंगति और मानव की पूंजी लोलुपता की ओर इशारा करते हैं –
“डकैती का एक हिस्सा जाता है पहरेदारों को
यहाँ इनाम से नवाजा जाता है गद्दारों को
****************
मंदिर मस्जिद से ज्यादा भीड़ होती है मधुशालाओं में
अब तो फूहड़ता नजर आती है सभी कलाओं में।”[10]
इसी प्रकार काव्यसुधा के चिट्ठाकार नीरज कुमार की कविताएँ – नया विहान, आत्महत्या, आदमी, कष्ट हरो माँ, तलाश, दीप, नारी, कर्मपथ, आगे हम बढ़ें, अब मैं पराभूत नहीं, आषाढ़ का कर्ज, उड़ो तुम, अतिक्रमण तथा भूपेंद्र जायसवाल की कविता घोर कलयुग, बेईमानों का राज और सुबोध सृजन के चिट्ठाकार सजन कुमार मुरारका की दायित्व, मन की भूख, दर्द एवं त्रिलोक सिंह ठकुरेला की अनेक रचनाएँ उत्तराधुनिक सामाजिक चेतना से अनुप्राणित हैं। उत्तराधुनिकता का एक सूत्र है – अतीत की वर्तमानता। उत्तराधुनिकता अतीत के वर्चस्ववादी विमर्शों को बदलने के लिए प्रतिबद्ध है। नीरज कुमार की परिवर्तन कविता में इसी बदलाव की आवश्यकता महसूस की गई है –
“सुन्दर है ख्वाब, पलने दीजिए
नई चली है हवा, बहने दीजिए
जमाना बदल रहा है, आप भी बदलिए
पुराने खयालों को रहने दीजिए
************
कैद में थे परिंदे कभी से
अब आजाद हैं तो उड़ने दीजिए
बहुत चुभे हैं हाथों में काँटे
अब खिले हैं फूल तो महकने दीजिए।”[11]
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऑनलाइन कविताएं उत्तरआधुनिकता की हिमायती हैं। इन कविताओं में मानव की सामाजिक स्वतंत्रता के साथ-साथ उन विसंगतियों का भी चित्रण है जिनके कारण वह (मानव) आज तक पराधीन है। पराधीनता से मुक्ति का अर्थ स्व की अभिव्यक्ति है। स्व की अभिव्यक्ति का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता से है। ऐसी स्वतंत्रता जिसमें मानव वैवाहिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी रूपों से बंधन मुक्त हो।
[1] उत्तर आधुनिकता कुछ विचार, सं. देव शंकर नवीन/ सुशांत कुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण वर्ष – 2000, पृ.सं.48
[2] दैनिक देशबंधु, रायपुर संस्करण, स्तंभ-पूछिए परसाई जी से, 8 मई 1988
[3] अनहदनाद, वृष्टि छाया प्रदेश का कवि, चिट्ठाकार- प्रियंकर, जून 2007
[4] मेरे विचार मेरी अनुभूति, नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी, चिट्ठाकार – कालीपद प्रसाद, जून 2015
[5] वही
[6] हिंदी कविता मंच, हमें जीने दो, चिट्ठाकार- ऋषभ शुक्ला
[7] हिंदी कविता, भ्रष्टाचार, भूपेंद्र जायसवाल, अक्तूबर 2012
[9] 21वीं सदी का इंद्रधनुष, अखबार, चिट्ठाकार –बवन पाण्डे, जून 2014
[10] हिंदी कविता, यहाँ कागज के टुकड़े पर बिकते है लोग, भूपेंद्र जायसवाल, सितंबर 2012
[11] काव्यसुधा, परिवर्तन, नीरज कुमार, अक्तूबर 2012
Monday, August 1, 2016
उत्तर आधुनिकता
उत्तर आधुनिकता
-डॉ.उत्तम पटेल
उत्तर आधुनिकता की पहली परिकल्पना आर्नल्ड टॉयनबी ने की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक A Study Of History में आज से लगभग 120 साल पूर्व 1850 इ.स. से 1857 इ.स. के बीच आधुनिक युग की समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने 1918-1939 के बीच के समय के लिए उत्तर आधुनिक शब्द का प्रयोग किया था। उनके मतानुसार उत्तर आधुनिकता के मसीहा नीत्से थे।
लेकिन उत्तर आधुनिक शब्द का चलन बाद में आया... एडोर्नो-होर्खिमार ने इसे नये दार्शिनक अर्थ दिये। बाद में फ्रांसीसी दार्शनिक ल्योतार ने इसे एक स्थिति के रूप में स्थिर करने का प्रयत्न किया।
इतिहास में उत्तर आधुनिक विशेषण का पहला प्रयोग अमरिकी उपन्यासकार जॉन वाथ्र् ने 1967 में द लिटरेचर ऑफ एक्सॉशन नामक प्रथम लेख में सार्थक ढंग से किया था। जब कि उत्तर आधुनिक शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1979 में ल्योतार ने किया था।
उत्तर आधुनिकता विचार या दर्शन से अधिक एक प्रवृत्ति का नाम है। यह बीसवीं शताब्दी की मूल धारा है। यह संपूर्ण आधुनिक यूरोपीय दर्शन के प्रति एक तीव्र प्रतिक्रिया है-देकार्त, सार्त्र एवम् जर्मन चिंतकों के प्रति। पाउलोस मार ग्रगोरिओस के मतानुसार उत्तर आधुनिकता एक विचारधारा या लक्ष्य केंद्रित या नियम अनुशासित आंदोलन न होकर पश्चिमी मानवतावाद की दुर्दशा है। यह लक्ष्यों, नियमों, सरल रेखाओं तथा साधारण विचारों पर विचार नहीं करती। यह आधुनिक पाश्चात्य मानवतावाद की अग्रचेतना की एक स्थिति है। ल्योतार, रोर्टी, फूको एवम् देरिदा आदि के दर्शन मुख्य रूप से हेगल के प्रत्ययवादी (Idealist) विचारों की चेतन प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुए हैं।
उत्तर आधुनिकता की मूल चेतना आधुनिक ही है। क्योंकि इसका विकास एवम् इसकी अस्मिता का आधार वही उद्योग हैं जो आधुनिकता की देन है। टॉयनबी के अनुसार आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता तब शुरू होती है जब लोग कई अर्थों में अपने जीवन, विचार एवम् भावनाओं में तार्किकता एवम् संगति को त्याग कर अतार्किकता एवम् असंगतियों को अपना लेते हैं। इसकी चेतना विगत को एवम् विगत के प्रतिमानों को भुला देने के सक्रिय उत्साह में दीख पड़ती है। इस प्रकार उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की समाप्ति के बाद की स्थिति है।
लाक्षणिकताएं:
1.उत्तर आधुनिक की स्थिति में किसी भी आदर्श एवम् ज्ञान का आधार मानवता की आधुनिक चेतना होती है।
2.उत्तर आधुनिकतावाद व्यक्ति या सामाजिक इकाइयों की स्वतंत्रता के पक्ष में तर्क करती है।
3.व्यक्ति को सामाजिक तंत्र का मात्र एक पुर्जा न मानकर उसे एक अस्मितापूर्ण अस्तित्व प्रदान करता है।
4.आधुनिकता के पूर्णवादी रवैये का विरोध करता है।
5.ज्ञान की जगह उपभोग को प्राधान्य देता है।
6.यह अतीत में जाने की छूट देता है, किन्तु उसे मनोरंजन बनाते हुए, पण्य और उपभोग की सामग्री बनाने के लिए। यह अतीत का पुन: उत्पादन संभव करता है, किन्तु उसकी भव्यता का स्वीकार नहीं करता।
7.यह हर महानता को सामान्य बनाता है।
8.समग्रता का विखंडन(अस्वीकार) करता है।
9.रचना को विज्ञापन तथा समीक्षा को प्रयोजन बना देता है।
10.इससे शब्दार्थ में अनेकांत पैदा होती है।
11.इसमें एक देश का सत्य, विश्व का सत्य बन गया है। कला सूचना मात्र है।
12.यह ज्ञान शब्द का अर्थ बदल देता है, अज्ञात प्रस्तुत करता है, वैधता का एक नया आदर्स प्रस्तुत करता है. मतैक्य के बदले मतभेद को महत्व देता है. एकरूपता का अस्वीकार करके विषमता की स्थिति का स्वीकार करता है. एकरूपता के प्रति यह विरुचि ऐतिहासिक अनुभव पर आधारित है।
13.यह सार्थक बहुलता का स्वीकार करता है। इसके अनुसार एकता मात्र दमनकारी व एकपक्षीय तरीकों से स्थापित की जा सकती है। एकता का सीधा अर्थ है नियमों व बलों की आवश्यकता। बहुलता व विषमता सामाजिक प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से टकराव की स्थिति पैदा करते हैं। उत्तर आधुनिकता के अनुसार सापेक्ष मतैक्य न्याय प्राप्ति करने का कोई संतोष कारक समाधान नहीं दे सकता। इसलिए न्याय के ऐसे वैचारिक व व्यावहारिक पक्ष पर पहुँचना होगा जो मतैक्य से जुड़े न हों। ल्योतार ने न्याय की चेतना विकसित की ओर अन्याय के प्रति एक नई संवेदनशीलता का निर्माण किया।
14.यह उच्च संस्कृति एवम् निम्न संस्कृति में अंतर करने की प्रक्रिया को चुनौती देता है।
15.उत्तर आधुनिकता विचारधारा, व्यक्तिगत आस्थाओं, त्रुटियों एवम् विकारों को विज्ञान से जोड़ती है।
16.आधुनिकतावाद के अनुसार आख्यानों की दुनिया से निकल कर ही वास्तविक ज्ञान मिल सकता है. जबकि ल्योतार का कथन है- विज्ञान और आख्यान का विरोध तर्कहीन है, क्योंकि विज्ञान अपने आप में एक प्रकार का आख्यान है। विज्ञान उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है, उद्योग-वाणिज्य में सहायता करता है। विज्ञान शोषण एवम् श्रम से मनुष्य को मुक्त करता है। विज्ञान विचारों की मुक्ति एवम् विकास के द्वार खोलता है। इसलिए महा आख्यानों को त्याग कर अनिश्चितता एवम् सापेक्षता की उत्तर आधुनिक परिस्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिये।
17.उत्तर आधुनिकता तार्किकता के अति उपयोग पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। इसके अनुसार मनुष्य पूर्णत: स्वायत्त, उच्च एवम् श्रेष्ठ है। वह अपने मानस एवम् कामुकता के अलावा न तो किसीके प्रति उत्तरदायी है और न ही किसी पर आश्रित है।
18.उत्तर आधुनिकता पीछे की ओर लौटना नहीं चाहता। यह उन पारंपरिक एवम् धार्मिक प्रतिमानों को पुन: स्थापित नहीं करना चाहता, जिन्हें आधुनिकता ने अस्वीकार कर दिया था। यह ऐसे प्रतिमानों का अस्वीकार करता है जिनमें लिखित भाषा एवम् तर्कशास्त्रीय तार्किकता पर बल दिया जाता है।
19.उत्तर आधुनिकता निश्चितता के असंदेहास्पद आधार पर किसी ज्ञानतंत्र की स्थापना की कठिनाइयों का स्वीकार करता है।
20.उत्तर आधुनिकतावादी ऐसे समाज की खोज में लगे हैं जो अदमनकारी हो।
21.यह निश्चितता, क्रमिकता, एकरूपता में विश्वास नहीं करता, अस्पष्ट तथा अनायास को मान्यता देता है।
देरिदा और विरचना:
उत्तर आधुनिकता के संदर्भ में देरिदा का विरचना-सिध्दांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। देरिदा ने पॉजीशन्स एवम् ग्रामाटोलॉजी पुस्तकों में इसकी चर्चा की है। देरिदा विरचना द्वारा शब्दकेन्द्रवाद ( Logocentrism ) का विरोध करते हैं। विरचना यानेDiffer या defer.
यूरोपीय तथा भारतीय- दोनों दर्शनों की विरचना की जा सकती है। विरचना एक दार्शनिक प्रणाली है, जिसका उपयोग देरिदा ने दार्शनिक विश्लेषण के सत्ता मीमांसक पहलुओं की विरचना के लिए किया है। संकेत का विचार बोध देरिदा के लेखन का मुख्य विषय है. संकेत की धारणा सदा ही इंद्रियगोचर एवम् बुध्दिगम्य के बीच के तात्विक विरोध पर निर्भर रही है या निर्धारित होती रही है।
देरिदा ने हेराक्लिटस एवम् सोफिस्टों की यह मान्यता कि लोगोस(शब्द) परा इंद्रिय, अविभाज्य, एक एवम् चिरंतन है तथा स्टोइकों, बाइबल, सुकरात, प्लेटो, हेगेल एवम् उपनिषदों की यह मान्यता कि लोगोस को चेतना के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है - दोनों को एक धारा में मिला दिया।
देरिदा के मतानुसार लोगोस एवम् लोगोस की चेतना एक ही चीज़ है।
हेराक्लिटस, सोफिस्टों, स्टोइकों और बाइबल में शब्दकेन्द्रवाद विचार का मुख्य विषय रहा है। भारतीय दर्शन का मुख्य विषय इंद्रियातीत की सहायता से इंद्रियानुभवगम्य विश्व की सहायता करना रहा है। देरिदा ने शब्दकेन्द्रवाद के विरुध्द विरचना की प्रणाली तीन तरीकों से लगायी है - 1. लोगोस को विक्रेन्द्रित करना, 2. लोगोस को हाशिये पर पहुँचा देना और 3. लोगोस को विरचित करना। देरिदा शब्दकेन्द्रवाद का विरोध कर संकेत को महत्व देते हैं। आज का युग सूचना एवम् संकेतों का युग है। इसीलिए तो उत्तर आधुनिकता में यह स्थापित हो गया कि साधारण पाठ (Text) बहुत जटिल पाठेतर (Extra Textual)संरचनाएँ प्रस्तुत कर सकते हैं। सोस्यूर ने भी लिखित शब्द की अपेक्षा वाचित शब्द या विमर्श को वस्तु रचयित तत्व के रूप में अधिक महत्व दिया है। कविता में लिखे गये सांस्कृतिक सद्भाव के अनेक अर्थ हो सकते हैं। कविता के संदर्भ में इसे संपूर्ण कविता (Total Poetry) कहते हैं। मिथक का प्रयोग कविता के पाठ के अर्थ पूर्ण ईकाई के रूप में स्वीकार किया गया है। उत्तर आधुनिकता ने भारतीय होने की भावना जगा दी है। दलित साहित्य एवम् ऑंचलिक उपन्यास की रचना इसका परिणाम है। संस्कृति या लौकिक तत्व पूरी तरह से उत्तर आधुनिक साहित्य का अंग है। इस रूप में उत्तर आधुनिकता भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति तथा शास्त्राचार एवम् लोकाचार -संबंधों का मिश्रण है। संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, नाटक एवम् फिल्म की संकेत पध्दतियाँ उत्तर आधुनिकता में वर्तमान हैं।
इस युग में लेखक अपने उत्तराधिकार, गूढता और अद्वितीयता के प्रति सजग हैं। वे सीधे शब्दों में अपना संदेश पहुँचाने के इच्छुक हैं। वे आख्यानों में नए प्रयोग करते हैं, फैंटसी, विस्मय जैसी साहित्य विधाओं से संबध्द हो रहे हैं। फिर भी लेखक बिना किसी वचन-बध्दता के शक्तिहीन एवम् राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गये हैं।
देरिदा पाठ को अर्थयुक्त रचना के रूप में नहीं स्वीकारते, वे तो उसमें उपस्थित आंतरिक विसंगतियों की बात करते हैं।
उत्तर आधुनिकता की समस्याएँ:
1. इसमें सिध्दांत-निर्माण नहीं होता।
2. यह अंतरों को परम बनाना चाहते हैं.
3.यह समालोचनात्मक शक्ति समाप्त कर देता है।
4.संस्कृति के नाम पर होनेवाले शोषण एवम् अन्याय के प्रति सहिष्णु होने के नाम पर उदासीन होता है।
5.मनुष्य की संभावनाओं को कम कर ऑंकता है। इस रूप में यह नाशवाद है।
6.यह किसी एक व्याख्या को असंभव करता है।
7.यह पीछे की ओर लौटना नहीं चाहता।
8.यह आधुनिक सांस्कृतिक-सामाजिक अनुभव को पीछे धकेलता है।
9. इसमें ऐतिहासिकता की अनुपस्थिति होती है।
उत्तर आधुनिकता की उपलब्धियाँ:
1.बहुलतावाद उत्तर आधुनिकता का मुख्य केन्द्र है। पूर्णता का विघटन इसके लिए आवश्यक शर्त है।
2.प्रौद्योगिकी, नई तकनीकें लगातार हमारे ज्ञान को प्रभावित करती है। अत: हमें प्रासंगिक व वास्तविक ज्ञान की आंतरिक विशेषताओं के प्रति सजग होना होगा।
3.उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकवाद का भविष्योन्मुखी परिवर्तनीय रूप है।
4.इसमें अंतर-व्यक्तिपरकता को जीवंत रखा जाता है।
5.निजी जगत (प्राईवेसी) का खात्मा इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
संक्षेप में, उत्तर आधुनिकतावाद की प्रतिक्रियाएँ ऐसे नये मार्ग दिखाती हैं जिनसे नये बौध्दिक वातावरण में आधुनिक दर्शन की उपलब्धियों की पुन:परीक्षा की जा सकती है एवम् उनके महत्व का पुन:मूल्यांकन करने के लिए नई दृष्टि देती हैं।
उत्तर आधुनिकता और साहित्य:
1.कवि किसी निश्चित काव्य-प्रकार में रचना नहीं करता, मुक्त रूप से सर्जन करता है।
2.काव्य-रचनाओं में अनेक अधूरी पंक्तियाँ होती हैं, जिसे पाठक को स्वयं अपनी कल्पना, अपने अनुभव के आधार पर समझना होता है।
3.काव्य का आकार या पाठ महत्वपूर्ण नहीं होते, उसमें से व्यक्त होनेवाले अर्थों को, संदर्भों को उजागर करना महत्वपूर्ण होता है।
4.कविता मुक्त विचरण करती है।
5.कविता स्वानुभव रसिक नहीं, सर्वानुभव रसिक बन गई है।
6.कवि की दृष्टि एवम् सृष्टि स्व से सर्वकेन्द्री बन गई है।
7.उत्तर आधुनिक कविता वाद विहीन है।
8.दलित साहित्य, ऑंचलिक उपन्यास, नारी-विमर्श की रचनाएँ इसका परिणाम है।
9.कृति का अंत हो रहा है। पाठ कृति की जगह ले रहा है। पाठ और विखंडन उत्तर आधुनिकतावादी है।
10.यह कलाकार के लुटते जाने का वक्त है।
11.साहित्य और कला मुनाफे से संबध्द हो गये हैं। वे जितना अधिक मुनाफा देते हैं, उतने ही मूल्यवान हैं। (जैसे, शोभा डे, सुरेन्द्र वर्मा, अरुंधती रॉय आदि की रचनाएँ।)
12.उत्तर आधुनिक कलाकार दार्शनिक की तरह है। वह जो पाठ लिखता है, जो निर्माण करता है, उसके लिए कोई भी पूर्व निर्धारित नियम लागू नहीं होते। उसकी कोई परंपरा नहीं है। वे पूर्ण निर्णयों से जाँचे नहीं जा सकते। हर कृति अपने नियम खोजती है। उत्तर आधुनिक लेखक बिना नियमों के खेल खेलते हैं। इसीलिए साहित्य सिर्फ संभावना होता है, संभव नहीं होता। पाठ या कृति घटना मात्र होती है, उपलब्धि नहीं। इसीलिए वे अपने सर्जक के नहीं होते। उनका अर्जन बहुत तुरत-फुरत होता है।
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रचनाकार - डॉ. उत्तम पटेल , श्री वनराज आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज, धरमपुर, जि.वलसाड - पिन:396050 में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं.
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