उत्तर आधुनिकता
-डॉ.उत्तम पटेल
उत्तर आधुनिकता की पहली परिकल्पना आर्नल्ड टॉयनबी ने की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक A Study Of History में आज से लगभग 120 साल पूर्व 1850 इ.स. से 1857 इ.स. के बीच आधुनिक युग की समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने 1918-1939 के बीच के समय के लिए उत्तर आधुनिक शब्द का प्रयोग किया था। उनके मतानुसार उत्तर आधुनिकता के मसीहा नीत्से थे।
लेकिन उत्तर आधुनिक शब्द का चलन बाद में आया... एडोर्नो-होर्खिमार ने इसे नये दार्शिनक अर्थ दिये। बाद में फ्रांसीसी दार्शनिक ल्योतार ने इसे एक स्थिति के रूप में स्थिर करने का प्रयत्न किया।
इतिहास में उत्तर आधुनिक विशेषण का पहला प्रयोग अमरिकी उपन्यासकार जॉन वाथ्र् ने 1967 में द लिटरेचर ऑफ एक्सॉशन नामक प्रथम लेख में सार्थक ढंग से किया था। जब कि उत्तर आधुनिक शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1979 में ल्योतार ने किया था।
उत्तर आधुनिकता विचार या दर्शन से अधिक एक प्रवृत्ति का नाम है। यह बीसवीं शताब्दी की मूल धारा है। यह संपूर्ण आधुनिक यूरोपीय दर्शन के प्रति एक तीव्र प्रतिक्रिया है-देकार्त, सार्त्र एवम् जर्मन चिंतकों के प्रति। पाउलोस मार ग्रगोरिओस के मतानुसार उत्तर आधुनिकता एक विचारधारा या लक्ष्य केंद्रित या नियम अनुशासित आंदोलन न होकर पश्चिमी मानवतावाद की दुर्दशा है। यह लक्ष्यों, नियमों, सरल रेखाओं तथा साधारण विचारों पर विचार नहीं करती। यह आधुनिक पाश्चात्य मानवतावाद की अग्रचेतना की एक स्थिति है। ल्योतार, रोर्टी, फूको एवम् देरिदा आदि के दर्शन मुख्य रूप से हेगल के प्रत्ययवादी (Idealist) विचारों की चेतन प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुए हैं।
उत्तर आधुनिकता की मूल चेतना आधुनिक ही है। क्योंकि इसका विकास एवम् इसकी अस्मिता का आधार वही उद्योग हैं जो आधुनिकता की देन है। टॉयनबी के अनुसार आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता तब शुरू होती है जब लोग कई अर्थों में अपने जीवन, विचार एवम् भावनाओं में तार्किकता एवम् संगति को त्याग कर अतार्किकता एवम् असंगतियों को अपना लेते हैं। इसकी चेतना विगत को एवम् विगत के प्रतिमानों को भुला देने के सक्रिय उत्साह में दीख पड़ती है। इस प्रकार उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की समाप्ति के बाद की स्थिति है।
लाक्षणिकताएं:
1.उत्तर आधुनिक की स्थिति में किसी भी आदर्श एवम् ज्ञान का आधार मानवता की आधुनिक चेतना होती है।
2.उत्तर आधुनिकतावाद व्यक्ति या सामाजिक इकाइयों की स्वतंत्रता के पक्ष में तर्क करती है।
3.व्यक्ति को सामाजिक तंत्र का मात्र एक पुर्जा न मानकर उसे एक अस्मितापूर्ण अस्तित्व प्रदान करता है।
4.आधुनिकता के पूर्णवादी रवैये का विरोध करता है।
5.ज्ञान की जगह उपभोग को प्राधान्य देता है।
6.यह अतीत में जाने की छूट देता है, किन्तु उसे मनोरंजन बनाते हुए, पण्य और उपभोग की सामग्री बनाने के लिए। यह अतीत का पुन: उत्पादन संभव करता है, किन्तु उसकी भव्यता का स्वीकार नहीं करता।
7.यह हर महानता को सामान्य बनाता है।
8.समग्रता का विखंडन(अस्वीकार) करता है।
9.रचना को विज्ञापन तथा समीक्षा को प्रयोजन बना देता है।
10.इससे शब्दार्थ में अनेकांत पैदा होती है।
11.इसमें एक देश का सत्य, विश्व का सत्य बन गया है। कला सूचना मात्र है।
12.यह ज्ञान शब्द का अर्थ बदल देता है, अज्ञात प्रस्तुत करता है, वैधता का एक नया आदर्स प्रस्तुत करता है. मतैक्य के बदले मतभेद को महत्व देता है. एकरूपता का अस्वीकार करके विषमता की स्थिति का स्वीकार करता है. एकरूपता के प्रति यह विरुचि ऐतिहासिक अनुभव पर आधारित है।
13.यह सार्थक बहुलता का स्वीकार करता है। इसके अनुसार एकता मात्र दमनकारी व एकपक्षीय तरीकों से स्थापित की जा सकती है। एकता का सीधा अर्थ है नियमों व बलों की आवश्यकता। बहुलता व विषमता सामाजिक प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से टकराव की स्थिति पैदा करते हैं। उत्तर आधुनिकता के अनुसार सापेक्ष मतैक्य न्याय प्राप्ति करने का कोई संतोष कारक समाधान नहीं दे सकता। इसलिए न्याय के ऐसे वैचारिक व व्यावहारिक पक्ष पर पहुँचना होगा जो मतैक्य से जुड़े न हों। ल्योतार ने न्याय की चेतना विकसित की ओर अन्याय के प्रति एक नई संवेदनशीलता का निर्माण किया।
14.यह उच्च संस्कृति एवम् निम्न संस्कृति में अंतर करने की प्रक्रिया को चुनौती देता है।
15.उत्तर आधुनिकता विचारधारा, व्यक्तिगत आस्थाओं, त्रुटियों एवम् विकारों को विज्ञान से जोड़ती है।
16.आधुनिकतावाद के अनुसार आख्यानों की दुनिया से निकल कर ही वास्तविक ज्ञान मिल सकता है. जबकि ल्योतार का कथन है- विज्ञान और आख्यान का विरोध तर्कहीन है, क्योंकि विज्ञान अपने आप में एक प्रकार का आख्यान है। विज्ञान उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है, उद्योग-वाणिज्य में सहायता करता है। विज्ञान शोषण एवम् श्रम से मनुष्य को मुक्त करता है। विज्ञान विचारों की मुक्ति एवम् विकास के द्वार खोलता है। इसलिए महा आख्यानों को त्याग कर अनिश्चितता एवम् सापेक्षता की उत्तर आधुनिक परिस्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिये।
17.उत्तर आधुनिकता तार्किकता के अति उपयोग पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। इसके अनुसार मनुष्य पूर्णत: स्वायत्त, उच्च एवम् श्रेष्ठ है। वह अपने मानस एवम् कामुकता के अलावा न तो किसीके प्रति उत्तरदायी है और न ही किसी पर आश्रित है।
18.उत्तर आधुनिकता पीछे की ओर लौटना नहीं चाहता। यह उन पारंपरिक एवम् धार्मिक प्रतिमानों को पुन: स्थापित नहीं करना चाहता, जिन्हें आधुनिकता ने अस्वीकार कर दिया था। यह ऐसे प्रतिमानों का अस्वीकार करता है जिनमें लिखित भाषा एवम् तर्कशास्त्रीय तार्किकता पर बल दिया जाता है।
19.उत्तर आधुनिकता निश्चितता के असंदेहास्पद आधार पर किसी ज्ञानतंत्र की स्थापना की कठिनाइयों का स्वीकार करता है।
20.उत्तर आधुनिकतावादी ऐसे समाज की खोज में लगे हैं जो अदमनकारी हो।
21.यह निश्चितता, क्रमिकता, एकरूपता में विश्वास नहीं करता, अस्पष्ट तथा अनायास को मान्यता देता है।
देरिदा और विरचना:
उत्तर आधुनिकता के संदर्भ में देरिदा का विरचना-सिध्दांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। देरिदा ने पॉजीशन्स एवम् ग्रामाटोलॉजी पुस्तकों में इसकी चर्चा की है। देरिदा विरचना द्वारा शब्दकेन्द्रवाद ( Logocentrism ) का विरोध करते हैं। विरचना यानेDiffer या defer.
यूरोपीय तथा भारतीय- दोनों दर्शनों की विरचना की जा सकती है। विरचना एक दार्शनिक प्रणाली है, जिसका उपयोग देरिदा ने दार्शनिक विश्लेषण के सत्ता मीमांसक पहलुओं की विरचना के लिए किया है। संकेत का विचार बोध देरिदा के लेखन का मुख्य विषय है. संकेत की धारणा सदा ही इंद्रियगोचर एवम् बुध्दिगम्य के बीच के तात्विक विरोध पर निर्भर रही है या निर्धारित होती रही है।
देरिदा ने हेराक्लिटस एवम् सोफिस्टों की यह मान्यता कि लोगोस(शब्द) परा इंद्रिय, अविभाज्य, एक एवम् चिरंतन है तथा स्टोइकों, बाइबल, सुकरात, प्लेटो, हेगेल एवम् उपनिषदों की यह मान्यता कि लोगोस को चेतना के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है - दोनों को एक धारा में मिला दिया।
देरिदा के मतानुसार लोगोस एवम् लोगोस की चेतना एक ही चीज़ है।
हेराक्लिटस, सोफिस्टों, स्टोइकों और बाइबल में शब्दकेन्द्रवाद विचार का मुख्य विषय रहा है। भारतीय दर्शन का मुख्य विषय इंद्रियातीत की सहायता से इंद्रियानुभवगम्य विश्व की सहायता करना रहा है। देरिदा ने शब्दकेन्द्रवाद के विरुध्द विरचना की प्रणाली तीन तरीकों से लगायी है - 1. लोगोस को विक्रेन्द्रित करना, 2. लोगोस को हाशिये पर पहुँचा देना और 3. लोगोस को विरचित करना। देरिदा शब्दकेन्द्रवाद का विरोध कर संकेत को महत्व देते हैं। आज का युग सूचना एवम् संकेतों का युग है। इसीलिए तो उत्तर आधुनिकता में यह स्थापित हो गया कि साधारण पाठ (Text) बहुत जटिल पाठेतर (Extra Textual)संरचनाएँ प्रस्तुत कर सकते हैं। सोस्यूर ने भी लिखित शब्द की अपेक्षा वाचित शब्द या विमर्श को वस्तु रचयित तत्व के रूप में अधिक महत्व दिया है। कविता में लिखे गये सांस्कृतिक सद्भाव के अनेक अर्थ हो सकते हैं। कविता के संदर्भ में इसे संपूर्ण कविता (Total Poetry) कहते हैं। मिथक का प्रयोग कविता के पाठ के अर्थ पूर्ण ईकाई के रूप में स्वीकार किया गया है। उत्तर आधुनिकता ने भारतीय होने की भावना जगा दी है। दलित साहित्य एवम् ऑंचलिक उपन्यास की रचना इसका परिणाम है। संस्कृति या लौकिक तत्व पूरी तरह से उत्तर आधुनिक साहित्य का अंग है। इस रूप में उत्तर आधुनिकता भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति तथा शास्त्राचार एवम् लोकाचार -संबंधों का मिश्रण है। संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, नाटक एवम् फिल्म की संकेत पध्दतियाँ उत्तर आधुनिकता में वर्तमान हैं।
इस युग में लेखक अपने उत्तराधिकार, गूढता और अद्वितीयता के प्रति सजग हैं। वे सीधे शब्दों में अपना संदेश पहुँचाने के इच्छुक हैं। वे आख्यानों में नए प्रयोग करते हैं, फैंटसी, विस्मय जैसी साहित्य विधाओं से संबध्द हो रहे हैं। फिर भी लेखक बिना किसी वचन-बध्दता के शक्तिहीन एवम् राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गये हैं।
देरिदा पाठ को अर्थयुक्त रचना के रूप में नहीं स्वीकारते, वे तो उसमें उपस्थित आंतरिक विसंगतियों की बात करते हैं।
उत्तर आधुनिकता की समस्याएँ:
1. इसमें सिध्दांत-निर्माण नहीं होता।
2. यह अंतरों को परम बनाना चाहते हैं.
3.यह समालोचनात्मक शक्ति समाप्त कर देता है।
4.संस्कृति के नाम पर होनेवाले शोषण एवम् अन्याय के प्रति सहिष्णु होने के नाम पर उदासीन होता है।
5.मनुष्य की संभावनाओं को कम कर ऑंकता है। इस रूप में यह नाशवाद है।
6.यह किसी एक व्याख्या को असंभव करता है।
7.यह पीछे की ओर लौटना नहीं चाहता।
8.यह आधुनिक सांस्कृतिक-सामाजिक अनुभव को पीछे धकेलता है।
9. इसमें ऐतिहासिकता की अनुपस्थिति होती है।
उत्तर आधुनिकता की उपलब्धियाँ:
1.बहुलतावाद उत्तर आधुनिकता का मुख्य केन्द्र है। पूर्णता का विघटन इसके लिए आवश्यक शर्त है।
2.प्रौद्योगिकी, नई तकनीकें लगातार हमारे ज्ञान को प्रभावित करती है। अत: हमें प्रासंगिक व वास्तविक ज्ञान की आंतरिक विशेषताओं के प्रति सजग होना होगा।
3.उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकवाद का भविष्योन्मुखी परिवर्तनीय रूप है।
4.इसमें अंतर-व्यक्तिपरकता को जीवंत रखा जाता है।
5.निजी जगत (प्राईवेसी) का खात्मा इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
संक्षेप में, उत्तर आधुनिकतावाद की प्रतिक्रियाएँ ऐसे नये मार्ग दिखाती हैं जिनसे नये बौध्दिक वातावरण में आधुनिक दर्शन की उपलब्धियों की पुन:परीक्षा की जा सकती है एवम् उनके महत्व का पुन:मूल्यांकन करने के लिए नई दृष्टि देती हैं।
उत्तर आधुनिकता और साहित्य:
1.कवि किसी निश्चित काव्य-प्रकार में रचना नहीं करता, मुक्त रूप से सर्जन करता है।
2.काव्य-रचनाओं में अनेक अधूरी पंक्तियाँ होती हैं, जिसे पाठक को स्वयं अपनी कल्पना, अपने अनुभव के आधार पर समझना होता है।
3.काव्य का आकार या पाठ महत्वपूर्ण नहीं होते, उसमें से व्यक्त होनेवाले अर्थों को, संदर्भों को उजागर करना महत्वपूर्ण होता है।
4.कविता मुक्त विचरण करती है।
5.कविता स्वानुभव रसिक नहीं, सर्वानुभव रसिक बन गई है।
6.कवि की दृष्टि एवम् सृष्टि स्व से सर्वकेन्द्री बन गई है।
7.उत्तर आधुनिक कविता वाद विहीन है।
8.दलित साहित्य, ऑंचलिक उपन्यास, नारी-विमर्श की रचनाएँ इसका परिणाम है।
9.कृति का अंत हो रहा है। पाठ कृति की जगह ले रहा है। पाठ और विखंडन उत्तर आधुनिकतावादी है।
10.यह कलाकार के लुटते जाने का वक्त है।
11.साहित्य और कला मुनाफे से संबध्द हो गये हैं। वे जितना अधिक मुनाफा देते हैं, उतने ही मूल्यवान हैं। (जैसे, शोभा डे, सुरेन्द्र वर्मा, अरुंधती रॉय आदि की रचनाएँ।)
12.उत्तर आधुनिक कलाकार दार्शनिक की तरह है। वह जो पाठ लिखता है, जो निर्माण करता है, उसके लिए कोई भी पूर्व निर्धारित नियम लागू नहीं होते। उसकी कोई परंपरा नहीं है। वे पूर्ण निर्णयों से जाँचे नहीं जा सकते। हर कृति अपने नियम खोजती है। उत्तर आधुनिक लेखक बिना नियमों के खेल खेलते हैं। इसीलिए साहित्य सिर्फ संभावना होता है, संभव नहीं होता। पाठ या कृति घटना मात्र होती है, उपलब्धि नहीं। इसीलिए वे अपने सर्जक के नहीं होते। उनका अर्जन बहुत तुरत-फुरत होता है।
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रचनाकार - डॉ. उत्तम पटेल , श्री वनराज आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज, धरमपुर, जि.वलसाड - पिन:396050 में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं.
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