आधुनिकता पुरानी मान्यताओं एवं मूल्यों को तोड़कर अपनी एक अलग पहचान बनाने का प्रयास है। अर्थात् सामाजिक संरचना और मूल्यों से परिवर्तन के साथ एक सर्वथा नई विचारधारा का जन्म। ‘आधुनिकता’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘मॉडर्न’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है अभी-अभी घटी हुई घटना। आधुनिकता के केंद्र में मनुष्य है। और मनुष्य के आधुनिक होने का अर्थ ही यही है पुरानी मान्यताओं को नकारना। एडवांस होना। एकल परिवार में विश्वास रखना। धार्मिकता के झंझटों से मुक्त होना। अर्थात् गैर पाश्चात्य जगत पर पाश्चात्यीकरण का प्रभाव। इसकी प्रमुख विशेषताओं में स्वकेंद्रित बुद्धिवाद, ईश्वरीय सत्ता के प्रति अविश्वास, नगरीकरण, वैज्ञानिकता, सुखवाद, धर्मनिरपेक्षता, तर्कशीलता, भौतिकवाद आते हैं। संक्षेप में आधुनिकता मनुष्य को ऐसी स्वतंत्रता देता है जो न किसी पर निर्भर हो और न ही उत्तरदायी। जहाँ तक सवाल उत्तर आधुनिकता का है, तो यह आधुनिकता के बाद की सीढ़ी है। इसकी कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती। उत्तर आधुनिकता को रेखांकित करते हुए सुधीश पचौरी अपनी पुस्तक ‘उत्तरआधुनिकता: कुछ विचार’ में लिखते हैं – “आधुनिकता एक ऐतिहासिक मूल्यबोध और वातावरण के रूप में विज्ञान, योजना, सेक्युलरिज्म और प्रगति केंद्र जैसे विशेषणों को अर्थ देती रहती है, उत्तर आधुनिकता इनके सीमांतों का नाम है। इसलिए विज्ञान के मुकाबले अनुभव की वापसी, योजना की जगह बाजार की वापसी, सेक्युलरिज्म की जगह साम्प्रदायिक, जातिवादी, या स्त्रीवादी उपकेंद्रों की वापसी और मनुष्य-केंद्रित प्रगति की जगह प्रकृति केंद्रित विकास के बीच लगातर बहस जारी है।”[1] उत्तर आधुनिकता विचारों की समग्रता के स्थान पर विखंडन को महत्व देती है। वह समाज के उन प्रबुद्ध शोषकों की विचारधारा का विरोध करती है जो अपने ही समाज के निम्न वर्गों का शोषण कर रहे हैं। यही कारण है कि उत्तर आधुनिक साहित्य में दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों एवं आम आदमी की बातें अधिक हुई हैं।
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Saturday, December 25, 2021
उत्तर आधुनिक काल विमोचन
जनसंचार के माध्यम का साहित्य स्वयं में उत्तर आधुनिक साहित्य है। यहाँ लेखकीयता, अद्वितीयता, मौलिकता, स्वायत्तता, भव्यता सब कुछ ख़त्म है। ऑनलाइन साहित्य इसका ज्वलंत उदाहरण है। यहाँ लेखक अपनी मन की बात बेरोक-टोक कह सकता है। आधुनिकता से कहीं आगे की चर्चा इसमें की गयी है। पाठक अपनी त्वरित टिप्पणी भी दे सकते हैं। सामाजिक चेतना व्यक्तिवादी चेतना का ही अगला चरण है जो हमें ऑनलाइन साहित्य में सुगमता से परिलक्षित हो जाता है। सामाजिक चेतना के विषय में दैनिक देशबंधु में परसाई जी लिखते हैं – “समाज में रहकर अपने को समाज का अंग समझना, समाज के उत्थान-पतन, सुख-दुख, गति-अवगति में साथ होना, पूरे समाज के उत्थान के बारे में सोचना और मानना कि समाज के उत्थान से व्यक्ति का उत्थान है, समाज की समस्याओं और संघर्षों को समझना तथा उसमें सहभागी होना यही सब सामाजिक चेतना है।”[2] तभी तो अनहदनाद चिट्ठाकार प्रियंकर उत्तरआधुनिक समाज के त्रस्त शोषित वर्ग से अपने को एकाकार करते हुए लिखते हैं –
“विलंबित विस्तार में
मेरे संगतकार हैं
जीवन के पृष्ठ-प्रदेश में
करघे पर कराहते बीमार बुनकर
रांपी टटोलते बुजुर्ग मोचीराम
गाड़ी हाँकते गाड़ीवान
खेत गोड़ते-निराते
और निशब्द
उसी मिट्टी में
गलते जाते किसान”[3]
उत्तरआधुनिक ऑनलाइन साहित्य में सामाजिक चेतना केवल दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासियों तक ही सीमित नहीं है वह तो सरकार की नीतियों, स्त्री-पुरुष संबंधों, पिता-पुत्र संबंधों, यौन संबंधों, तकनीकी, सांस्कृतिक, सामाजिक, दांपत्य, पारिवारिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, धार्मिक, शैक्षणिक मूल्यों के अतिक्रमण पर भी खुली बात करती है। तभी तो मेरे विचार मेरी अनुभूति में पुत्र के माध्यम से पिता को समझाते हुए चिट्ठाकार कालीपद प्रसाद लिखते हैं –
“आधुनिक परिवेश में पले, पढ़े, बढ़े
मॉडर्न होने का दावा करनेवाले
पुत्र ने थोड़ी देर पिता को गौर से देखा
फिर बोला
पापा मैं अब बड़ा हो गया हूँ
मैं अपना खयाल रख सकता हूँ
अपना भला-बुरा समझ सकता हूँ
यह जिंदगी मेरी है
मैं घूमूँ, फिरूँ, मौज-मस्ती करूँ
या एक ओर से
गले में फंदा डलवा लूँ
और उस घुंघटे से सदा के लिए
बंधा रहूँ
आपको क्या फरक पड़ता है?
जीना मुझे है
भुगतना भी मुझे है
आप चिंतित क्यों हैं।”[4]
उत्तरआधुनिक युवक-युवतियाँ अथवा नई पीढ़ी का मानव स्वतंत्र रहना चाहता है। ऐसी स्वतंत्रता जो अन्य किसी के प्रति उत्तरदायी न हो, न ही वे कोई ऐसा रिश्ता बनाना चाहते हैं, जो उनकी स्वतंत्रता में बाधक हो। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी नामक कविता में चिट्ठाकार कालीपद प्रसाद लिखते हैं –
“यह जिंदगी मेरी है
हर युवक, हर युवती का
आज यही बीज मंत्र है
सोचने समझने का नया ढंग है।
लड़कियाँ भी नहीं चाहती
एक खूंटे से बंधे रहना
----------------
जिंदगी मेरी है
इसमें किसी के
हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है।”[5]
उत्तरआधुनिक सामाजिक विमर्शों में स्त्रीविमर्श, समलैंगिक विमर्श, आदिवासी-दलित विमर्श स्वयं में प्रतिनिधित्वकर्ता हैं। वे विकेंद्रित साहित्य की सत्ता हैं। समाज के वर्चस्वशाली तबके के नीचे दबे हाशिए को ढूँढना ही उत्तर आधुनिकता है। चालू विमर्शों में सांस्कृतिक विषयों की कमियों को उजागर करना ही उत्तर आधुनिकता का चरित्र है। भारतीय परिवेश में स्त्री को पुरुष से कमजोर व कमतर माना जाता है। उसकी अवहेलना की जाती है। स्त्री यदि गर्भावस्था में है तभी उसका गर्भपात करा दिया जाता है। अपने समाज की यह एक सबसे बड़ी समस्या है। हिंदी कविता मंच के चिट्ठाकार ऋषभ शुक्ला हमें जीने दो नामक कविता में इसी सामाजिक समस्या के प्रति सचेत होकर बेटी (जो गर्भावस्था में है) के माध्यम से पिता को समझाते हुए लिखते हैं -
“पापा पापा मुझे जीने दो
मुझे आने दो
इस अद्भुत दुनिया की
एक झलक तो पाने दो।।
----
मैंने क्या किया है बुरा
जो तुम चाहते हो मारना
मैं तो अभी आयी भी नहीं
और तुम चाहते हो निकालना।”[6]
उत्तर आधुनिक समाज के केंद्र में पूंजी है। मनुष्य अपने हित-लाभ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। वह दूसरों के सुख-दुःख की चिंता नहीं करता। अपनी तिजोरियाँ भरने में ही पूरा जीवन बिता देता है। सामाजिकता की इन विसंगतियों से कवि का मस्तिष्क विचलित हो उठता है। वह यह कहने को मजबूर हो उठता है –
“एक चपरासी से लेकर अधिकारी तक
निजी से लेकर सरकारी तक
वकील से लेकर धर्माधिकारी तक
हो गए हैं सब भ्रष्ट, आम जनता है त्रस्त।”[7]
समाज में संचार माध्यमों की अलग भूमिका रही है। संचार माध्यम एक नवीन बाजार उत्पन्न कर रहा है। समाज में हो रहे भ्रष्टाचारों, व्यवहारों, विसंगतियों का खुला चिट्ठा है आज का अखबार। इन खबरों से जनता का मन ऊब चुका है। अखबार कविता के माध्यम से बवन पाण्डे अपने ब्लॉग पर समाज की इसी विसंगति का विरोध करते हैं। और वे ऐसे अखबार की आशा करते है जिसमें –
“सोचता हूँ
कब पढ़ पाऊँगा
अखबार ...
जिसमें न छपी हो
दुष्कर्म की कहानी
महंगाई की मार ....
हिंदू–मुस्लिम के बीच मार-काट की खबरें
जेब-कटाई की खबरें।”[8]
उत्तर आधुनिक समाज का प्रत्येक अंग, क्षेत्र, भाग सब कुछ पूंजी पर आश्रित है। पारिवारिक मूल्यों की बात हो अथवा शिक्षा, धर्म, प्रशासन की चर्चा करें सभी में धन ने अपनी घुस पैठ बना ली है। समाज का जो वर्ग प्रशासक है उसके पास धन सर्वसुलभ है। निम्न वर्ग अपने आर्थिक कारणों से दिन प्रतिदिन और पिछड़ता जा रहा है। पूंजी के सम्मुख किसी का कोई मूल्य नहीं। धार्मिक गुरु, शिक्षक, स्त्री-पुरुष, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षा, नेता, पुरस्कार सभी पर पूंजी का आधिपत्य है। कवि चिट्ठाकार नीरज कुमार अपनी कविता गाँव-मसान-गुड़गाँव में स्वयं की व्यक्तिगत चेतना को सामाजिक चेतना में रूपांतरित करते हुए कहते हैं –
“गाँव के स्कूल में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी
मास्टर साहब का ध्यान
अब पढ़ाने में नहीं रहता
देखते हैं गिर ना जाये
खाने में छिपकली
**********************
चढ़ावा ऊपर तक चढ़ता है तब जाकर कहीं
स्कूल का मिलता है अनाज।”[9]
एक अन्य चिट्ठाकार भूपेंद्र जायसवाल जी भी इसी सामाजिक विसंगति और मानव की पूंजी लोलुपता की ओर इशारा करते हैं –
“डकैती का एक हिस्सा जाता है पहरेदारों को
यहाँ इनाम से नवाजा जाता है गद्दारों को
****************
मंदिर मस्जिद से ज्यादा भीड़ होती है मधुशालाओं में
अब तो फूहड़ता नजर आती है सभी कलाओं में।”[10]
इसी प्रकार काव्यसुधा के चिट्ठाकार नीरज कुमार की कविताएँ – नया विहान, आत्महत्या, आदमी, कष्ट हरो माँ, तलाश, दीप, नारी, कर्मपथ, आगे हम बढ़ें, अब मैं पराभूत नहीं, आषाढ़ का कर्ज, उड़ो तुम, अतिक्रमण तथा भूपेंद्र जायसवाल की कविता घोर कलयुग, बेईमानों का राज और सुबोध सृजन के चिट्ठाकार सजन कुमार मुरारका की दायित्व, मन की भूख, दर्द एवं त्रिलोक सिंह ठकुरेला की अनेक रचनाएँ उत्तराधुनिक सामाजिक चेतना से अनुप्राणित हैं। उत्तराधुनिकता का एक सूत्र है – अतीत की वर्तमानता। उत्तराधुनिकता अतीत के वर्चस्ववादी विमर्शों को बदलने के लिए प्रतिबद्ध है। नीरज कुमार की परिवर्तन कविता में इसी बदलाव की आवश्यकता महसूस की गई है –
“सुन्दर है ख्वाब, पलने दीजिए
नई चली है हवा, बहने दीजिए
जमाना बदल रहा है, आप भी बदलिए
पुराने खयालों को रहने दीजिए
************
कैद में थे परिंदे कभी से
अब आजाद हैं तो उड़ने दीजिए
बहुत चुभे हैं हाथों में काँटे
अब खिले हैं फूल तो महकने दीजिए।”[11]
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऑनलाइन कविताएं उत्तरआधुनिकता की हिमायती हैं। इन कविताओं में मानव की सामाजिक स्वतंत्रता के साथ-साथ उन विसंगतियों का भी चित्रण है जिनके कारण वह (मानव) आज तक पराधीन है। पराधीनता से मुक्ति का अर्थ स्व की अभिव्यक्ति है। स्व की अभिव्यक्ति का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता से है। ऐसी स्वतंत्रता जिसमें मानव वैवाहिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी रूपों से बंधन मुक्त हो।
[1] उत्तर आधुनिकता कुछ विचार, सं. देव शंकर नवीन/ सुशांत कुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण वर्ष – 2000, पृ.सं.48
[2] दैनिक देशबंधु, रायपुर संस्करण, स्तंभ-पूछिए परसाई जी से, 8 मई 1988
[3] अनहदनाद, वृष्टि छाया प्रदेश का कवि, चिट्ठाकार- प्रियंकर, जून 2007
[4] मेरे विचार मेरी अनुभूति, नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी, चिट्ठाकार – कालीपद प्रसाद, जून 2015
[5] वही
[6] हिंदी कविता मंच, हमें जीने दो, चिट्ठाकार- ऋषभ शुक्ला
[7] हिंदी कविता, भ्रष्टाचार, भूपेंद्र जायसवाल, अक्तूबर 2012
[9] 21वीं सदी का इंद्रधनुष, अखबार, चिट्ठाकार –बवन पाण्डे, जून 2014
[10] हिंदी कविता, यहाँ कागज के टुकड़े पर बिकते है लोग, भूपेंद्र जायसवाल, सितंबर 2012
[11] काव्यसुधा, परिवर्तन, नीरज कुमार, अक्तूबर 2012
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