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Monday, August 1, 2016

उत्तर आधुनिकता

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-डॉ.उत्तम पटेल
उत्तर आधुनिकता की पहली परिकल्पना आर्नल्ड टॉयनबी ने की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक A Study Of History में आज से लगभग 120 साल पूर्व 1850 इ.स. से 1857 इ.स. के बीच आधुनिक युग की समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने 1918-1939 के बीच के समय के लिए उत्तर आधुनिक शब्द का प्रयोग किया था। उनके मतानुसार उत्तर आधुनिकता के मसीहा नीत्से थे।
लेकिन उत्तर आधुनिक शब्द का चलन बाद में आया... एडोर्नो-होर्खिमार ने इसे नये दार्शिनक अर्थ दिये। बाद में फ्रांसीसी दार्शनिक ल्योतार ने इसे एक स्थिति के रूप में स्थिर करने का प्रयत्न किया।
इतिहास में उत्तर आधुनिक विशेषण का पहला प्रयोग अमरिकी उपन्यासकार जॉन वाथ्र् ने 1967 में द लिटरेचर ऑफ एक्सॉशन नामक प्रथम लेख में सार्थक ढंग से किया था। जब कि उत्तर आधुनिक शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1979 में ल्योतार ने किया था।
उत्तर आधुनिकता विचार या दर्शन से अधिक एक प्रवृत्ति का नाम है। यह बीसवीं शताब्दी की मूल धारा है। यह संपूर्ण आधुनिक यूरोपीय दर्शन के प्रति एक तीव्र प्रतिक्रिया है-देकार्त, सार्त्र एवम् जर्मन चिंतकों के प्रति। पाउलोस मार ग्रगोरिओस के मतानुसार उत्तर आधुनिकता एक विचारधारा या लक्ष्य केंद्रित या नियम अनुशासित आंदोलन न होकर पश्चिमी मानवतावाद की दुर्दशा है। यह लक्ष्यों, नियमों, सरल रेखाओं तथा साधारण विचारों पर विचार नहीं करती। यह आधुनिक पाश्चात्य मानवतावाद की अग्रचेतना की एक स्थिति है। ल्योताररोर्टीफूको एवम् देरिदा आदि के दर्शन मुख्य रूप से हेगल के प्रत्ययवादी (Idealist) विचारों की चेतन प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुए हैं।
उत्तर आधुनिकता की मूल चेतना आधुनिक ही है। क्योंकि इसका विकास एवम् इसकी अस्मिता का आधार वही उद्योग हैं जो आधुनिकता की देन है। टॉयनबी के अनुसार आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता तब शुरू होती है जब लोग कई अर्थों में अपने जीवन, विचार एवम् भावनाओं में तार्किकता एवम् संगति को त्याग कर अतार्किकता एवम् असंगतियों को अपना लेते हैं। इसकी चेतना विगत को एवम् विगत के प्रतिमानों को भुला देने के सक्रिय उत्साह में दीख पड़ती है। इस प्रकार उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की समाप्ति के बाद की स्थिति है।
लाक्षणिकताएं:
1.उत्तर आधुनिक की स्थिति में किसी भी आदर्श एवम् ज्ञान का आधार मानवता की आधुनिक चेतना होती है।
2.उत्तर आधुनिकतावाद व्यक्ति या सामाजिक इकाइयों की स्वतंत्रता के पक्ष में तर्क करती है।
3.व्यक्ति को सामाजिक तंत्र का मात्र एक पुर्जा न मानकर उसे एक अस्मितापूर्ण अस्तित्व प्रदान करता है।
4.आधुनिकता के पूर्णवादी रवैये का विरोध करता है।
5.ज्ञान की जगह उपभोग को प्राधान्य देता है।
6.यह अतीत में जाने की छूट देता है, किन्तु उसे मनोरंजन बनाते हुए, पण्य और उपभोग की सामग्री बनाने के लिए। यह अतीत का पुन: उत्पादन संभव करता है, किन्तु उसकी भव्यता का स्वीकार नहीं करता।
7.यह हर महानता को सामान्य बनाता है।
8.समग्रता का विखंडन(अस्वीकार) करता है।
9.रचना को विज्ञापन तथा समीक्षा को प्रयोजन बना देता है।
10.इससे शब्दार्थ में अनेकांत पैदा होती है।
11.इसमें एक देश का सत्य, विश्व का सत्य बन गया है। कला सूचना मात्र है।
12.यह ज्ञान शब्द का अर्थ बदल देता है, अज्ञात प्रस्तुत करता है, वैधता का एक नया आदर्स प्रस्तुत करता है. मतैक्य के बदले मतभेद को महत्व देता है. एकरूपता का अस्वीकार करके विषमता की स्थिति का स्वीकार करता है. एकरूपता के प्रति यह विरुचि ऐतिहासिक अनुभव पर आधारित है।
13.यह सार्थक बहुलता का स्वीकार करता है। इसके अनुसार एकता मात्र दमनकारी व एकपक्षीय तरीकों से स्थापित की जा सकती है। एकता का सीधा अर्थ है नियमों व बलों की आवश्यकता। बहुलता व विषमता सामाजिक प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से टकराव की स्थिति पैदा करते हैं। उत्तर आधुनिकता के अनुसार सापेक्ष मतैक्य न्याय प्राप्ति करने का कोई संतोष कारक समाधान नहीं दे सकता। इसलिए न्याय के ऐसे वैचारिक व व्यावहारिक पक्ष पर पहुँचना होगा जो मतैक्य से जुड़े न हों। ल्योतार ने न्याय की चेतना विकसित की ओर अन्याय के प्रति एक नई संवेदनशीलता का निर्माण किया।
14.यह उच्च संस्कृति एवम् निम्न संस्कृति में अंतर करने की प्रक्रिया को चुनौती देता है।
15.उत्तर आधुनिकता विचारधारा, व्यक्तिगत आस्थाओं, त्रुटियों एवम् विकारों को विज्ञान से जोड़ती है।
16.आधुनिकतावाद के अनुसार आख्यानों की दुनिया से निकल कर ही वास्तविक ज्ञान मिल सकता है. जबकि ल्योतार का कथन है- विज्ञान और आख्यान का विरोध तर्कहीन है, क्योंकि विज्ञान अपने आप में एक प्रकार का आख्यान है। विज्ञान उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है, उद्योग-वाणिज्य में सहायता करता है। विज्ञान शोषण एवम् श्रम से मनुष्य को मुक्त करता है। विज्ञान विचारों की मुक्ति एवम् विकास के द्वार खोलता है। इसलिए महा आख्यानों को त्याग कर अनिश्चितता एवम् सापेक्षता की उत्तर आधुनिक परिस्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिये।
17.उत्तर आधुनिकता तार्किकता के अति उपयोग पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। इसके अनुसार मनुष्य पूर्णत: स्वायत्त, उच्च एवम् श्रेष्ठ है। वह अपने मानस एवम् कामुकता के अलावा न तो किसीके प्रति उत्तरदायी है और न ही किसी पर आश्रित है।
18.उत्तर आधुनिकता पीछे की ओर लौटना नहीं चाहता। यह उन पारंपरिक एवम् धार्मिक प्रतिमानों को पुन: स्थापित नहीं करना चाहता, जिन्हें आधुनिकता ने अस्वीकार कर दिया था। यह ऐसे प्रतिमानों का अस्वीकार करता है जिनमें लिखित भाषा एवम् तर्कशास्त्रीय तार्किकता पर बल दिया जाता है।
19.उत्तर आधुनिकता निश्चितता के असंदेहास्पद आधार पर किसी ज्ञानतंत्र की स्थापना की कठिनाइयों का स्वीकार करता है।
20.उत्तर आधुनिकतावादी ऐसे समाज की खोज में लगे हैं जो अदमनकारी हो।
21.यह निश्चितता, क्रमिकता, एकरूपता में विश्वास नहीं करता, अस्पष्ट तथा अनायास को मान्यता देता है।
देरिदा और विरचना:
उत्तर आधुनिकता के संदर्भ में देरिदा का विरचना-सिध्दांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। देरिदा ने पॉजीशन्स एवम् ग्रामाटोलॉजी पुस्तकों में इसकी चर्चा की है। देरिदा विरचना द्वारा शब्दकेन्द्रवाद ( Logocentrism ) का विरोध करते हैं। विरचना यानेDiffer या defer.
यूरोपीय तथा भारतीय- दोनों दर्शनों की विरचना की जा सकती है। विरचना एक दार्शनिक प्रणाली है, जिसका उपयोग देरिदा ने दार्शनिक विश्लेषण के सत्ता मीमांसक पहलुओं की विरचना के लिए किया है। संकेत का विचार बोध देरिदा के लेखन का मुख्य विषय है. संकेत की धारणा सदा ही इंद्रियगोचर एवम् बुध्दिगम्य के बीच के तात्विक विरोध पर निर्भर रही है या निर्धारित होती रही है।
देरिदा ने हेराक्लिटस एवम् सोफिस्टों की यह मान्यता कि लोगोस(शब्द) परा इंद्रिय, अविभाज्य, एक एवम् चिरंतन है तथा स्टोइकों, बाइबल, सुकरात, प्लेटो, हेगेल एवम् उपनिषदों की यह मान्यता कि लोगोस को चेतना के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है - दोनों को एक धारा में मिला दिया।
देरिदा के मतानुसार लोगोस एवम् लोगोस की चेतना एक ही चीज़ है।
हेराक्लिटस, सोफिस्टों, स्टोइकों और बाइबल में शब्दकेन्द्रवाद विचार का मुख्य विषय रहा है। भारतीय दर्शन का मुख्य विषय इंद्रियातीत की सहायता से इंद्रियानुभवगम्य विश्व की सहायता करना रहा है। देरिदा ने शब्दकेन्द्रवाद के विरुध्द विरचना की प्रणाली तीन तरीकों से लगायी है - 1. लोगोस को विक्रेन्द्रित करना, 2. लोगोस को हाशिये पर पहुँचा देना और 3. लोगोस को विरचित करना। देरिदा शब्दकेन्द्रवाद का विरोध कर संकेत को महत्व देते हैं। आज का युग सूचना एवम् संकेतों का युग है। इसीलिए तो उत्तर आधुनिकता में यह स्थापित हो गया कि साधारण पाठ (Text) बहुत जटिल पाठेतर (Extra Textual)संरचनाएँ प्रस्तुत कर सकते हैं। सोस्यूर ने भी लिखित शब्द की अपेक्षा वाचित शब्द या विमर्श को वस्तु रचयित तत्व के रूप में अधिक महत्व दिया है। कविता में लिखे गये सांस्कृतिक सद्भाव के अनेक अर्थ हो सकते हैं। कविता के संदर्भ में इसे संपूर्ण कविता (Total Poetry) कहते हैं। मिथक का प्रयोग कविता के पाठ के अर्थ पूर्ण ईकाई के रूप में स्वीकार किया गया है। उत्तर आधुनिकता ने भारतीय होने की भावना जगा दी है। दलित साहित्य एवम् ऑंचलिक उपन्यास की रचना इसका परिणाम है। संस्कृति या लौकिक तत्व पूरी तरह से उत्तर आधुनिक साहित्य का अंग है। इस रूप में उत्तर आधुनिकता भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति तथा शास्त्राचार एवम् लोकाचार -संबंधों का मिश्रण है। संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, नाटक एवम् फिल्म की संकेत पध्दतियाँ उत्तर आधुनिकता में वर्तमान हैं।
इस युग में लेखक अपने उत्तराधिकार, गूढता और अद्वितीयता के प्रति सजग हैं। वे सीधे शब्दों में अपना संदेश पहुँचाने के इच्छुक हैं। वे आख्यानों में नए प्रयोग करते हैं, फैंटसी, विस्मय जैसी साहित्य विधाओं से संबध्द हो रहे हैं। फिर भी लेखक बिना किसी वचन-बध्दता के शक्तिहीन एवम् राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गये हैं।
देरिदा पाठ को अर्थयुक्त रचना के रूप में नहीं स्वीकारते, वे तो उसमें उपस्थित आंतरिक विसंगतियों की बात करते हैं।
उत्तर आधुनिकता की समस्याएँ:
1. इसमें सिध्दांत-निर्माण नहीं होता।
2. यह अंतरों को परम बनाना चाहते हैं.
3.यह समालोचनात्मक शक्ति समाप्त कर देता है।
4.संस्कृति के नाम पर होनेवाले शोषण एवम् अन्याय के प्रति सहिष्णु होने के नाम पर उदासीन होता है।
5.मनुष्य की संभावनाओं को कम कर ऑंकता है। इस रूप में यह नाशवाद है।
6.यह किसी एक व्याख्या को असंभव करता है।
7.यह पीछे की ओर लौटना नहीं चाहता।
8.यह आधुनिक सांस्कृतिक-सामाजिक अनुभव को पीछे धकेलता है।
9. इसमें ऐतिहासिकता की अनुपस्थिति होती है।
उत्तर आधुनिकता की उपलब्धियाँ:
1.बहुलतावाद उत्तर आधुनिकता का मुख्य केन्द्र है। पूर्णता का विघटन इसके लिए आवश्यक शर्त है।
2.प्रौद्योगिकी, नई तकनीकें लगातार हमारे ज्ञान को प्रभावित करती है। अत: हमें प्रासंगिक व वास्तविक ज्ञान की आंतरिक विशेषताओं के प्रति सजग होना होगा।
3.उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकवाद का भविष्योन्मुखी परिवर्तनीय रूप है।
4.इसमें अंतर-व्यक्तिपरकता को जीवंत रखा जाता है।
5.निजी जगत (प्राईवेसी) का खात्मा इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
संक्षेप में, उत्तर आधुनिकतावाद की प्रतिक्रियाएँ ऐसे नये मार्ग दिखाती हैं जिनसे नये बौध्दिक वातावरण में आधुनिक दर्शन की उपलब्धियों की पुन:परीक्षा की जा सकती है एवम् उनके महत्व का पुन:मूल्यांकन करने के लिए नई दृष्टि देती हैं।
उत्तर आधुनिकता और साहित्य:
1.कवि किसी निश्चित काव्य-प्रकार में रचना नहीं करता, मुक्त रूप से सर्जन करता है।
2.काव्य-रचनाओं में अनेक अधूरी पंक्तियाँ होती हैं, जिसे पाठक को स्वयं अपनी कल्पना, अपने अनुभव के आधार पर समझना होता है।
3.काव्य का आकार या पाठ महत्वपूर्ण नहीं होते, उसमें से व्यक्त होनेवाले अर्थों कोसंदर्भों को उजागर करना महत्वपूर्ण होता है।
4.कविता मुक्त विचरण करती है।
5.कविता स्वानुभव रसिक नहींसर्वानुभव रसिक बन गई है।
6.कवि की दृष्टि एवम् सृष्टि स्व से सर्वकेन्द्री बन गई है।
7.उत्तर आधुनिक कविता वाद विहीन है।
8.दलित साहित्य, ऑंचलिक उपन्यास, नारी-विमर्श की रचनाएँ इसका परिणाम है।
9.कृति का अंत हो रहा है। पाठ कृति की जगह ले रहा है। पाठ और विखंडन उत्तर आधुनिकतावादी है।
10.यह कलाकार के लुटते जाने का वक्त है।
11.साहित्य और कला मुनाफे से संबध्द हो गये हैं। वे जितना अधिक मुनाफा देते हैं, उतने ही मूल्यवान हैं। (जैसे, शोभा डे, सुरेन्द्र वर्मा, अरुंधती रॉय आदि की रचनाएँ।)
12.उत्तर आधुनिक कलाकार दार्शनिक की तरह है। वह जो पाठ लिखता है, जो निर्माण करता है, उसके लिए कोई भी पूर्व निर्धारित नियम लागू नहीं होते। उसकी कोई परंपरा नहीं है। वे पूर्ण निर्णयों से जाँचे नहीं जा सकते। हर कृति अपने नियम खोजती है। उत्तर आधुनिक लेखक बिना नियमों के खेल खेलते हैं। इसीलिए साहित्य सिर्फ संभावना होता है, संभव नहीं होता। पाठ या कृति घटना मात्र होती है, उपलब्धि नहीं। इसीलिए वे अपने सर्जक के नहीं होते। उनका अर्जन बहुत तुरत-फुरत होता है।
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रचनाकार - डॉ. उत्तम पटेल , श्री वनराज आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेजधरमपुरजि.वलसाड - पिन:396050 में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं.
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उत्तर आधुनिकता और साहित्य,

http://www.swargvibha.in/aalekh/all_aalekh/uttaradhunikta.html


आधुनिकता एक जीवन प्रणाली के समान समकालीन समय से जुड़कर मानवीय मूल्यों की उद्भावक बन गयी थी. एक इतिहास क्रम में नव जागरण और समकालीन विचार आधुनिक के प्रवाह से अस्तित्व में आए.बदले हुवे समय में समकालीन विचारधाराओं में नया चिंतन आरम्ब हुआ. किवेन्टन स्किन्नर ने मानव विज्ञान की महान अवधारणा की वापसी के सन्दर्भ में यह कहा है कि यह उत्तर आधुनिकता का युग है. यह उत्तर आधुनिकता फिल्म से लेकर फैशन तक, साहित्य से संस्कृति तक, कामशास्त्र से कॉमिक्स तक और विज्ञान से विज्ञापन तक हर वस्तु को प्रभावित कर रही है. दर्शन, समाज और मीडिया सब इसके दायरे में है. लियोतार की पुस्तक 'द पोस्ट माडर्न' में कहा गया कि अब बीसवीं शताब्दी के अंत में एक नया सृजनात्मक युग होगा. इसका आरम्भ सं १९६८ ई. में पैरिस के छात्रों के विद्रोह में मिलता है. जिसमें कहा गया कि युवकों को मिलने-जुलने की आज़ादी हो. मार्शल मेकलुहान कि पुस्तक 'द मीडियम इज द मैसेज' में व्यापक परिवर्तनों को अंकित किया गया और उत्तर आधुनिकता ने एक नई विचारधारा का रूप प्राप्त कर लिया. यह भी कहा गया कि आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता में मूलभेद यही है कि आधुनिकता एक महान आख्यान को ठोस और इतिहास के दिशाहीन बहाव पर हावी करती है. वहीं उत्तर आधुनिकता लोक कथाओं, जातीय कहानियों और स्थानीय मुहावरों को महत्व देती है .उत्तर आधुनिकता संरचना को तोड़ने की कोशिश है. वह अविरचना है और उसमें विविधता है. आधुनिकता को दोबारा लिखना उत्तर आधुनिकता है और वह विज्ञान के माध्यम से मानवता को मुक्त कराने का प्रोजेक्ट है. यह कहा जा सकता है कि संरचना की जगह अविरचना उत्तर आधुनिकता में मुख्य है. वह केन्द्र से परिधि की ओर जाती है और साहित्य को नए विचार से जोड़ती है. 
उत्तर आधुनिकता कि अभिव्यक्ति साहित्य में व्यापक रूप से हुई है. वास्तव में आज समाज में शक्ति और सत्ता के केन्द्र के बीच मोहभंग कि स्थिति है. आज का रचनाकार एक प्रकार के अलगाव के बीच यथार्थ की दुनिया की तलाश करता है और अपने आत्मनिर्वासन और आत्महत्या से संघर्ष करता है. वह दोस्तीव्स्की हो, काफ्का हो, या मक्सिम गोर्की हो, या रिम्बो हो. संसार की गति बहुत तेज़ है. अब कहीं नायक नहीं है सब जगह प्रतिनायक है. आधुनिक कलाकार का आत्मसंघर्ष ही उसके सृजन का आधार है. बीसवीं शताब्दी में विश्व इतिहास के एक युग का अंत सा हो गया है. इस दुनिया में मनुष्य अनेक रूपों में बँटा हुआ यातना भोग रहा है. उसकी व्यथा और सपनों का कई अंत नहीं है.
कवि ऐसा न हो जैसा मिशल पूको ने कहा है कि "सागर के किनारे रेत पर बनाए गए चेहरे कि भाँति मनुष्य का निशान मिट जाए, कोई महाप्रलय हो जाए और मनुष्य कि मृत्यु ही हो जाए. "इस मृत्यु की घोषणा 'द डेथ ऑफ़ मनी' पुस्तक में कर्टजमन ने की, जो सं १९९२ ई. में प्रकाशित है. साल बेला ने हर्जोग में लिखा "मानव होने का क्या अर्थ है, एक नगर में, एक शताब्दी में, एक परिवर्तन में, एक भीड़ में, जिसे विज्ञान ने एक वस्तु में बदल दिया है. आधुनिकता के अंत की घोषणा कर उत्तर आधुनिकता में व्यक्ति कि मृत्यु को

हिन्दी साहित्य के वाद और विवाद [आलेख] - डॉ० मजीद मिया

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साधारणतः कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। इस कथन को सही अर्थों में दर्शाने के लिए हमें यथार्थ का अवलोकन करना होगा। क्योंकि समाज में जो भी घटनाएँ घटती है - अच्छी हो या बुरी सभी की छाप साहित्य पर पड़ती है। आज से पहले के साहित्य में प्रेम प्रसंग एवं नारी के अंग प्रत्यंग के स्वरूपों की चर्चा की बहुलता देखने को मिलती थी। पर समय के साथ-साथ सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार साहित्य में परिवर्तन होता गया है। साहित्य परिवर्तनशील होने के कारण यह सांकेतिक रूप में कहता रहता है, मौन साधे हुए विद्रोह भी करता रहता है। गाँव-शहर, गली-मुहल्ले के नेतृत्व वर्गों को खबरदार भी करता रहता है। डॉ० अरुण होता ने कहा है- “साहित्यकार कालजयी होता है। उसे युग-प्रवर्तक भी कहा जाता है, क्योंकि उसकी रचना किसी भी सीमित दायरे में बंध कर नहीं रहती। वह शाश्वत व चिरंतन हो जाती है। जब साहित्यकार अपने युग-जीवन के साथ निष्ठापूर्वक जुड़ता है तो वह सच्चे अर्थ में मानव-जीवन का रचयिता होता है। तभी वह युग-युग तक मानव-जाति के लिए अनजाने में संदेश देता रहता है।“1

Dr. Md. Mazid Miaरचनाकार परिचय:-


डॉ० मजीद मिया
उस साहित्य को सही अर्थों में साहित्य नहीं कहा जा सकता जिसमें यथार्थ को अनदेखा करके रचनाएं होती है। सच्चे साहित्यकार कभी भी खुद को प्रकृति वर्णन या फिर नारी के अंग-प्रत्यंग की प्रशंसा में नहीं रमाता। उसे तो हमेशा सचेत रहकर समाज के हर एक अच्छी-बुरी घटना को अपने साहित्य के द्वारा साधारण लोगों तक पहुंचाना होता है। समाज के हर एक तबके के लोगों के सुख-दुख एवं असंतुष्टि के कारण को उजागर करना होता है। आज साहित्य को मानव तस्करी, भ्रष्टाचार, यौन-दुराचार, राजनीतिक दावपेच तक पहुँच कर पात्र के संवाद के माध्यम से सही की खोज एवं असत्य को दूर करने का सामर्थ रखना होता है। उसे हमेशा देश के विकाश के साथ-साथ भारतीय राष्ट्रियता की भावना को उजागर करने की राह पर हमेशा आगे रहना होता है।
भारतीय समाज में आज भी मध्यकाल में लिखी गई अनेक रचनाओं एवं रचनाकारों की छाप देखने को मिलती है। अरुण कमल के शब्दों में, “मध्यकाल में भक्तिकालीन एवं प्रगतिवादी काव्य को छोड़कर हिंदी काव्य में आम आदमी लगभग उपेक्षित ही रहा है। आम आदमी न केवल साहित्य में बल्कि समाज में भी हमेशा अवांछित रहता है। परंतु वस्तुस्थिति यह है कि आम आदमी के सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं होता।“2 
आधुनिक हिन्दी साहित्य में छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद चार ही प्रवृत्तियाँ निश्चित रूप से इतिहास-सम्मत हैं।छायावादी काव्य में आत्मपरकता, प्रकृति के अनेक रूपों का सजीव चित्रण, विश्व मानवता के प्रति प्रेम आदि की अभिव्यक्ति हुई है। इसी काल में मानव मन के सूक्ष्म भावों को प्रकट करने की क्षमता हिंदी भाषा में विकसित हुई। छायावाद विशेष रूप से हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही। इसमें जयशंकर प्रसाद, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि मुख्य कवि हुए। यह सामान्य रूप से भावोच्छवास प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति है जो देश-कालगत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा-आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है।3
रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकार उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है। वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है और जब वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है तो उसको बाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है। लौकिक भाषा व वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकतीं। इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते हैं।4
मार्क्सवादी विचारधारा का साहित्य में प्रगतिवाद के रूप में उदय हुआ। यह समाज को शोषक और शोषित के रूप में देखता है। प्रगतिवादी शोषक वर्ग के खिलाफ शोषित वर्ग में चेतना लाने तथा उसे संगठित कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना की कोशिशों का समर्थन करता है। यह पूँजीवाद, सामंतवाद, धार्मिक संस्थाओं को शोषक के रूप में चिन्हित कर उन्हें उखाड़ फेंकने की बात करता है। प्रगति का सामान्य अर्थ है- आगे बढ़ना और वाद का अर्थ है- सिद्धान्त। इस प्रकार प्रगतिवाद का सामान्य अर्थ है - आगे बढ़ने का सिद्धांत। लेकिंग प्रगतिवाद में इस आगे बढ़ाने का एक विशेष ढंग है, विशेष दिशा है जो उसे विशिष्ट परिभाषा देता है। इस अर्थ में प्राचीन से नवीन की ओर, आदर्श से यथार्थ की ओर, पूँजीवाद से समाजवाद की ओर, रूढ़ियों से स्वच्छंद जीवन की ओर, उच्चवर्ग की ओर तथा शांति से क्रांति की ओर बढ़ाना ही प्रगतिवाद है।5
प्रयोगवाद धारा में समाज के शोषित वर्ग, मज़दूर और किसानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गयी, धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक विषमता पर चोट की गयी और हिंदी कविता एक बार फिर खेतों और खलिहानों से जुड़ी। वैयक्तिकता को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करने वाली धारा, जिसमें अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त प्रमुख हैं तथा प्रगतिशील धारा जिसमें गजानन माधव मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह तथा सुदामा पांडेय धूमिल आदि उल्लेखनीय हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना में इन दोनों धराओं का मेल दिखाई पड़ता है। इन दोनों ही धाराओं में अनुभव की प्रामाणिकता, लघुमानव की प्रतिष्ठा तथा बौधिकता का आग्रह आदि प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। साधारण बोलचाल की शब्दावली में असाधारण अर्थ भर देना इनकी भाषा की विशेषता है।
हिन्दी साहित्य का आधुनिक 
काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित है। स्वतन्त्रता संग्राम और राष्ट्रियता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी पड़ा है। भारत में औद्यौगिकरण का प्रारम्भ होने के साथ अँग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव भी बढ़ा और जीवन में बदलाव आया है।6
प्रतिभासवाद इस सिद्धांत के अनुसार दर्शन का प्रतिभास है। प्रतिभास से अर्थ है - जो भी प्रदत्त वस्तु प्रत्यक्षानुभूति का विषय बनती हो। फलत: प्रकृति विज्ञान के विपरीत युद्ध अपनाते हुए भी सह-प्रत्ययवाद से भी अलग पड़ता है। प्रतिभासवाद ज्ञानमीमांसा से अध्ययन प्रारंभ नहीं करता। दूसरी विशेषता यह है कि प्रतिभासवाद सारतत्वों को विषयवस्तु के रूप में चुनता है। ये सारतत्व प्रतिभासी आदर्श एवं बोधगम्य होते हैं। ये प्रत्याक्षानुभूति की क्रिया में मन में छूट जाते हैं इसीलिए इसे सारतत्वों का दर्शन भी कहते हैं। साभिप्रायिकता इस शुद्ध चेतना से संबंधित होती है। प्रेम, आस्वादन इत्यादि चेतना हैं, ये साभिप्रायिक अनुभव हैं। ये साभिप्रायिक अनुभव जिस वस्तु को ग्रहण करते हैं, उसे संपूर्ण रूप से जान लेते हैं। अनुभव स्वयं शुद्ध क्रिया है। साभिप्रायिक वस्तु और शुद्ध चेतना का साभिप्रायिक संबंध ही यह क्रिया है। आज एक बेहद अमानवीय दबाव है “लूटो नहीं तो लूट लिए जाओगे”, इन्हीं विखंडित और ध्वंसोन्मुख मूल्यों के अक्स आज साहित्य में उभर रहे हैं। इन्हीं मूल्यों का नियामक है आज का हिंदी साहित्य।7
तार्किक भाववाद अपने मूल रूप में विश्लेषणात्मक दर्शन है। भाषा का तार्किक विश्लेषण इत्यादि सिद्धांतों से लगता है कि तार्किक भाववाद वस्तुवादी सिद्धांत है। किंतु ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से यह वर्कले के आत्मगत प्रत्ययवाद के निकट पड़ता है। यद्यपि यह वैज्ञानिक संकेत, प्रतीक, वाक्यों इत्यादि की शब्दार्थ विज्ञान के अनुसार व्याख्या करता है, तथापि इसे बाह्य जगत् में विश्वास नहीं है। तार्किक भाववाद के अनुसार हमें बाह्य जगत् का ज्ञान नहीं हो सकता। हम सिर्फ अपने संवेदों को जान सकते हैं, बस। गुलाब स्वयं में क्या है, नहीं कहा जा सकता। लेकिन वह लाल है, सुगंधित और कोमल है, यही कहा जा सकता है। जिस गुलाब को हम जानते हैं, वह हमारे संवेदों से निर्मित होता है। यहीं इस दर्शन की सीमा समाप्त होती है।
अस्तित्ववाद का मूल स्वर निराशावादी है। जीवन के निषेधात्मक पक्षों पर ही उसमें अधिक विचार किया गया है। सामान्यत: यह स्वीकार किया गया है कि आदमी भाग्याधीन है और चरम रूप से वह अपनी परिस्थितियों से निर्धारित है। उनकी अधिकतर परिभाषाएँ अस्पष्ट और गढ़े हुए मुहावरों के कारण असंप्रेषणीय एवं दुरूह होती गई हैं। एक अर्थ में, इसमें अनुभवों का अतिरेक के साथ वर्णन हुआ है। अस्तित्ववादियों के अनुसार बौद्धिकता वास्तविकता की ओर नहीं ले जाती। ज्ञान की उपलब्धि अनुभव के माध्यम से ही हो सकती है। वास्तविकता अनुभूति गम्य है। प्रेम, घृणा, दया, करुणा, हिंसा इत्यादि मनुष्य की वास्तविक अभिव्यक्तियाँ हैं। अपनी लघुता के ज्ञान के साथ ही आदमी अनुभव का महत्व देने लगता है। फलत: अस्तित्ववाद बुद्धिविरोधी दर्शन है। 
उत्तराधुनिकवाद: वर्तमान समय में कुछ पाश्चात्य समाज वैज्ञानिक अपने देश के संदर्भ में आधुनिकवाद के स्तर से एक कदम आगे बढ़ कर आधुनिकोत्तर स्तर की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि पाश्चात्य विकसित देशों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अब लगभग समाप्त हो चुकी है। उनका समाज विकास के एक नई अवस्था में प्रवेश कर चुका है, जिसे वें उत्तराधुनिकतावाद की संज्ञा देते हैं। दूसरे शब्दों में, आज पाश्चात्य देश औद्यौगिक विकास एवं आधुनिकता की चरम सीमा को लाँघ चुका है। पाश्चात्य देशों की सभ्यता और संस्कृति विकास की उस ऊँचाई पर खड़ी है कि उसे आधुनिक की जगह उत्तराधुनिक काल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। उत्तर आधुनिकता की अवधारणा का प्रयोग आधुनिकता जैसी अवधारणा की विरोधी अवधारणा के रूप में किया जाता है।
निष्कर्ष: साहित्य कोई बहस का विषय नहीं है फिर भी साहित्य के उन्नति एवं समृद्धि के लिए बहस की महत्ता को नकारा भी नहीं जा सकता है। आज साहित्य को कुछ लोगों ने राजनीति का अखाड़ा बनाया हुआ है। साहित्य के नाम पर एक गुट दूसरे गुट पर आलोचना के नाम पर अक्सर कीचड़ उछाला करते हैं। ये लोग साहित्य की सृजनात्मक भूमि को भूल राह से भटक गए हैं। साहित्य को इस राजनीति एवं गुटबाजी के दलदल से निकालने के लिए रचनात्मक लोगों की जरूरत हिन्दी साहित्य को है न कि अपने कर्तव्य को भूलकर एक दूसरे के ऊपर लांछन लगाने वाले एवं किसी राजनेता के द्वारा अपने पुस्तक का विमोचन करवाकर राजनीति के क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाने वाले लोगों की। इस प्रकार की प्रवृति के लोगों से हिन्दी साहित्य को बचाना हम सब की जिम्मेवारी है। साधारणतः देखा जाता है कि यूरोपीय देशों में साहित्य एवं साहित्यकारों को अत्यंत सम्मान दिया जाता है। उनके लेखनी का विषय इतना सुस्पष्ट एवं सामाजिक विकास से जुड़ा होता है कि प्राय: हर एक तबके के लोग कम से कम एक तो पत्रिका जरूर पढ़ते है। जिससे वहाँ के साहित्यकारों का भरण-पोषण भी उसकी रचनाओं से हो जाता है, पर हमारे यहाँ तो स्थिति बिलकुल विपरीत है। यहाँ तो पाठक दिनो-दिन बढ़ने के बजाए घटते जा रहे हैं। कारण हमारे यहाँ किसी रचना का विषय रचनात्मक से ज्यादा किसी वर्ग या दल का पिछलग्गू ही बनकर रह गया है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि यहाँ संगोष्ठियों में साहित्यकारों से ज्यादा राजनीतिक दलों से जुड़े लोग देखने को मिलते हैं। अक्सर देखा जाता है कि संगोष्ठियों में उनके ही गुट के लोग आते हैं। वहाँ जैसे विद्वानो की जरूरत नहीं होती है, उन्हे तो अपने गुट को मजबूत करना होता है। शिक्षित वर्ग को यह सोचना होगा कि साहित्य की अपनी गरिमा होती है, उसका हमें सम्मान करना होगा अन्यथा हिन्दी साहित्य जिस प्रकार से गर्त की ओर जा रहा है, इसे रोकना असंभव हो जाएगा। साहित्यकार को साहित्यिक समारोह में आकर या अपने लेखनी में दूसरे एवं व्यर्थ की बातों को त्यागकर सृजनात्मक कार्यों को साकार करना होगा। आज साहित्य में विभिन्न वाद देखने को मिलते हैं – तार्किक-भाववाद, अस्तित्ववाद, प्रतिभासवाद, उत्तर आधुनिकवाद आदि। इस सभी का उद्देश्य है हिन्दी साहित्य की समृद्धि और इसकी जिम्मेवारी समय ही ले सकता है पर सरलता, यथार्थ, सामाजिक एवं सकारात्मक सोच ही सही अर्थों में सच्चे साहित्यकार को चरितार्थ करता है।

संदर्भ ग्रंथ:
1. अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा: डॉ० अरुण होता 
2. नए इलाके में: अरुण कमल पृ.23
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास व पुनर्लेखन की समस्याएँ: डॉ० चंद्रकुमार जैन
4. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास: रामकुमार वर्मा
5. हिन्दी साहित्य प्रश्नोत्तरी: गूगल पुस्तक
6. समकालीन हिंदी साहित्य के सतरंगी बिंब - डॉ० अरुण होता 
7. समकालीन दर्शन तथा उसकी प्रमुख समस्याएं: “आखरमाला” हिन्दी ब्लाग

देश की अखण्डता के लिये देश के हर हिस्से में सभी धर्मो के लोगो का बिखराव जरूरी है [आलेख]- विवेक रंजन श्रीवास्तव




विवेक रंजन श्रीवास्तवरचनाकार परिचय:-



विवेक रंजन श्रीवास्तव
अधीक्षण अभियंता 
औ बी ११ विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर जबलपुर


प्रश्न है देशों का निर्माण कैसे हुआ ? भौगोलिक स्थितियो के अनुसार लोगो का रहन सहन लगभग एक समान ही होता है . नदियो , पहाड़ो , रेगिस्तानो जैसी प्राकृतिक बाधाओ ने प्राचीन समय में देशो की सीमायें निर्धारित की . इतिहास साक्षी है कि एक ही विचारधारा और धर्म के मानने वाले भी एक ही राज्य के झंडे तले एकजुट होते रहे . विस्तार वादी नीतीयो से जब युद्ध राजधर्म सा बन गया तो सेनाओ को एकजुट रखने में भी धर्म का उपयोग किया गया . पिछली सदी में जब दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यो का महत्व बढ़ा तो ,विस्तारवादी युद्धो की वैश्विक भर्तसना होनी शुरु हुई . पर किंबहुना आज भी देशो के नक्शे क्षेत्रो की भौगोलिक स्थिति , राष्ट्रो की शक्तिसंपन्नता , वैचारिक और धार्मिक आधारो पर ही तय हो रहे हैं . भारत एक लोकतांत्रिक विश्व शक्ति है . हमारा संविधान हमें धार्मिक स्वतंत्रता देता है .संविधान के अनुच्छेद (२५-२८) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित हैं, जिसके अनुसार नागरिकों को अंत:करण और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्‍वतंत्रता, धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्‍वतंत्रता , किसी विशिष्‍ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्‍वतंत्रता तथा धार्मिक शिक्षा संस्‍थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में भारत के हर नागरिक को संविधान द्वारा स्‍वतंत्रता प्रदान की गई है .
हमारा संवैधानिक स्वरूप धर्म निरपेक्ष है , किंतु फिर भी देश में राजनीति धर्म आधारित ही है . चुनावों में सरे आम धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर वोटो का अंदाजा लगाकर पार्टियां उम्मिदवार तय करती हैं , मीडिया जातिगत वोटो की खुले आम चर्चा करता है पर चुनाव आयोग मौन रहता है ! मुझे लगता है देश में संविधान को गिने चुने लोगो द्वारा आम जनता पर थोपा गया है , यह ठीक रहा क्योकि संविधान व्यापक रूप से जनहितकारी है , पर जनमानस से ऐसे उदार संविधान की मांग उठने से पहले ही संविधान बना दिया गया जिसके चलते आम आदमी संविधान के महत्व से अपरिचित है , और इतर संवैधानिक गतिविधियो में संलग्न है . आज जरुरत लगती है कि देश की जनता को संविधान से परिचित करवाने के लिये अभियान चलाया जाये . जिससे आज के युवा नागरिक भी अपने संविधान पर गर्व करें और तद्अनुसार आचरण करें .
काशमीर से हिंदू पंडितो का विस्थापन , और अब उन्हें पुनः वहाँ बसाने को लेकर राजनीति गर्माई हुई है . पूर्वोत्तर के राज्यो में ईसाई धर्म का बाहुल्य है , और विदेशी ताकतें व ईसाई मिशनरियां धर्म के आधार पर वहां एकजुटता बनाकर देश विरोधी संगठन खडे करती रहती हैं . तमिलनाडु में धर्म के आधार पर ही श्रीलंका से सिंहली कनेक्शन रहे हैं , स्व राजीव गांधी की हत्या इसका ही दुष्परिणाम था . केरल में क्रिश्चेनिटी के कारण ही एक ही दल लगातार सत्ता पर बरसो से काबिज बना रहा है . हिंदी बहुल क्षेत्रो की बात की जाये तो धर्म ही नहीं जाति के आधार पर भी ध्रुवीकरण की तस्वीर साफ दिखती है . बिहार और उत्तर प्रदेश में यादवो का बोलबाला है . उत्तर प्रदेश में राम मंदिर के निर्माण को मुद्दा बनाकर यदि चुनाव लड़ा जाये, दलितो की अलग राजनैतिक पार्टी ही बन जाये और राजनेताओ द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण से वोट पाने की होड़ लगाई जाये तो मेरी समझ में यह संविधान का खुल्लम खल्ला मजाक है .जो सरे आम ताल ठोंककर राजनेता उड़ा रहे हैं व आम जनता दिग्भ्रमित है . गुजरात का पटेल आंदोलन तथा हरियाणा व राजस्थान का जाट आंदोलन ताजी तरीन बात है . १९५६ में जब प्रदेशो की पुनर्स्थापना की गई तो मध्य प्रदेश की राजधानी जबलपुर की जगह भोपाल में इसी आधार पर बनाई गई थी कि भोपाल में मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण वहां राजधानी बनने से गैर मुस्लिमो की पदस्थापनायें हो और धार्मिक समरसता बन सके . किसी हद तक भोपाल के इस प्रयोग ने एक अच्छा उदाहण भी प्रस्तुत किया . आज भी धार्मिक दंगे उन्हीं क्षेत्रो में होते हैं जहां किसी एक धर्म या जाति का बाहुल्य है .आबादी की धार्मिक समरसता व संतुलन से मिलनसारिता बढ़ती ही है . ऐसा सारे देश में किया जाना जरूरी है .
काश्मीर में हि्दू पंडितो के लिये सैनिक सुरक्षा में अलग कालोनी बसाने की बात कुछ ऐसी है जैसे वहां के मुसलमान कोई जंगली जानवर हों ! मैं हाल ही काश्मीर घूम कर लौटा , यद्यपि यह सही है कि मैं वहां टूरिस्ट था और टूरिज्म आधारित व्यवसाय होने के कारण मेरे साथ संपर्क में आये मुसलमानो का व्यवहार हमारे प्रति अतिरिक्त रूप से उदार रहा होगा , पर जब एक ही शहर में रहना हो , साथ साथ जीना हो तो किसी जाति विशेष के लिये बिल्कुल अलग कालोनी बसाने के प्रस्ताव का कोई भी समझदार व्यक्ति समर्थन नही कर सकता .काश्मीर में इस तरह की घटिया राजनीति करने की अपेक्षा वहां स्थाई रुप से इंफ्रास्ट्रक्चर डेवेलेपमेंट की आवश्यकता है . सरकारें वहां फोरलेन सड़कें बनवा दें , बिजली व्यवस्था का सुढ़ृड़ीकरण कर , टूरिज्म के विकास हेतु जरूरी कार्य कर दें , बाकी सब वहां की जनता स्वयं ही कर लेगी . जब वहां रोजगार के पर्याप्त संसाधन होंगे तो वहां के युवा पढ़े लिखे मुसलमान विस्थापित हिन्दू पंडितो को ही नहीं हर भारत वासी को धारा ३७० की अवहेलना करते हुये वहां अपने साथ बसने देंगे यह बात मैं काश्मीर में वहां के लोगों से अनौपचारिक चर्चा के आधार पर कह रहा हूं . जैसे प्रयत्न अभी राजनेता कश्मीरी पंडितो को बसाने के लिये कर रहे हैं उससे तो स्थाई वैमनस्यता और वर्ग संघर्ष को जन्म मिलेगा . देश के अनेक शहरो में भी बंगलादेश से आये हुये शरणार्थियो की अलग कालोनियां बनी हुई हैं , या मुसलमानो ने या सिंधियो ने अनेक शहरो में क्षेत्र विशेष में अलग कोनो में बसाहट की हुई है . प्रशासन के लोग समझते हैं कि जहां भी इस तरह की असंतुलित आबादी की बस्तियां हैं वहां त्यौहार विशेष या धार्मिक असद्भाव फैलने पर कितनी कठिनाई से ला एण्ड आर्डर मेंटेन हो पाता है . गुजरात में बिल्डिंग विशेष उपद्रवियो का निशाना इसीलिये बन सकी क्योकि वहां धर्म विशेष के लोग रहते थे . मेरा सुझाव है कि कानून बनाकर जातिगत या धर्मगत आधार पर कालोनियो और बिल्डिंगो में एक साथ एक ही वर्ग के लोगो को रहने पर रोक लगा देनी चाहिये . इस तरह के आवासीय ध्रुवीकरण की कल्पना तक संविधान निर्माताओ ने नही की होगी . वर्ग विशेष के लोग यदि इस तरह की आवास व्यवस्था में स्वयं को सुरक्षित मानते हैं तो ऐसी परिस्थितियों के लिये विगत ७० वर्षो की राजनीति ही दोषी कही जायेगी .
संविधान निर्माताओ के सपने का सच्चा धर्म निरपेक्ष भारत तभी वास्तविक स्वरूप ले सकता है जब सारे देश के हर हिस्से में सभी धर्मो के लोगो का स्वतंत्र बिखराव हो , यह देश की अखण्डता के लिये आवश्यक है . आशा है राजनेता क्षुद्र राजनीति से उपर उठकर देश के दीर्घ कालिक व्यापक हित में इस दिशा में चिंतन मनन और काम करेंगे . अन्यथा नई पीढ़ी के पढ़े लिखे लड़के लड़कियो ने जैसे आज विवाह तय करने में माता पिता और परिवार की भूमिका को गौंण कर दिया है उसी तरह सरकारो को दरकिनार करके समाज को देश की धार्मिक अखण्डता के लिये स्वतः ही कोई न कोई कदम उठाना ही पड़ेगा .