हिन्दी साहित्य के वाद और विवाद [आलेख] - डॉ० मजीद मिया
साधारणतः कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। इस कथन को सही अर्थों में दर्शाने के लिए हमें यथार्थ का अवलोकन करना होगा। क्योंकि समाज में जो भी घटनाएँ घटती है - अच्छी हो या बुरी सभी की छाप साहित्य पर पड़ती है। आज से पहले के साहित्य में प्रेम प्रसंग एवं नारी के अंग प्रत्यंग के स्वरूपों की चर्चा की बहुलता देखने को मिलती थी। पर समय के साथ-साथ सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार साहित्य में परिवर्तन होता गया है। साहित्य परिवर्तनशील होने के कारण यह सांकेतिक रूप में कहता रहता है, मौन साधे हुए विद्रोह भी करता रहता है। गाँव-शहर, गली-मुहल्ले के नेतृत्व वर्गों को खबरदार भी करता रहता है। डॉ० अरुण होता ने कहा है- “साहित्यकार कालजयी होता है। उसे युग-प्रवर्तक भी कहा जाता है, क्योंकि उसकी रचना किसी भी सीमित दायरे में बंध कर नहीं रहती। वह शाश्वत व चिरंतन हो जाती है। जब साहित्यकार अपने युग-जीवन के साथ निष्ठापूर्वक जुड़ता है तो वह सच्चे अर्थ में मानव-जीवन का रचयिता होता है। तभी वह युग-युग तक मानव-जाति के लिए अनजाने में संदेश देता रहता है।“1
रचनाकार परिचय:-
डॉ० मजीद मिया
भारतीय समाज में आज भी मध्यकाल में लिखी गई अनेक रचनाओं एवं रचनाकारों की छाप देखने को मिलती है। अरुण कमल के शब्दों में, “मध्यकाल में भक्तिकालीन एवं प्रगतिवादी काव्य को छोड़कर हिंदी काव्य में आम आदमी लगभग उपेक्षित ही रहा है। आम आदमी न केवल साहित्य में बल्कि समाज में भी हमेशा अवांछित रहता है। परंतु वस्तुस्थिति यह है कि आम आदमी के सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं होता।“2
आधुनिक हिन्दी साहित्य में छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद चार ही प्रवृत्तियाँ निश्चित रूप से इतिहास-सम्मत हैं।छायावादी काव्य में आत्मपरकता, प्रकृति के अनेक रूपों का सजीव चित्रण, विश्व मानवता के प्रति प्रेम आदि की अभिव्यक्ति हुई है। इसी काल में मानव मन के सूक्ष्म भावों को प्रकट करने की क्षमता हिंदी भाषा में विकसित हुई। छायावाद विशेष रूप से हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही। इसमें जयशंकर प्रसाद, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि मुख्य कवि हुए। यह सामान्य रूप से भावोच्छवास प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति है जो देश-कालगत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा-आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है।3
रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकार उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है। वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है और जब वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है तो उसको बाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है। लौकिक भाषा व वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकतीं। इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते हैं।4
मार्क्सवादी विचारधारा का साहित्य में प्रगतिवाद के रूप में उदय हुआ। यह समाज को शोषक और शोषित के रूप में देखता है। प्रगतिवादी शोषक वर्ग के खिलाफ शोषित वर्ग में चेतना लाने तथा उसे संगठित कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना की कोशिशों का समर्थन करता है। यह पूँजीवाद, सामंतवाद, धार्मिक संस्थाओं को शोषक के रूप में चिन्हित कर उन्हें उखाड़ फेंकने की बात करता है। प्रगति का सामान्य अर्थ है- आगे बढ़ना और वाद का अर्थ है- सिद्धान्त। इस प्रकार प्रगतिवाद का सामान्य अर्थ है - आगे बढ़ने का सिद्धांत। लेकिंग प्रगतिवाद में इस आगे बढ़ाने का एक विशेष ढंग है, विशेष दिशा है जो उसे विशिष्ट परिभाषा देता है। इस अर्थ में प्राचीन से नवीन की ओर, आदर्श से यथार्थ की ओर, पूँजीवाद से समाजवाद की ओर, रूढ़ियों से स्वच्छंद जीवन की ओर, उच्चवर्ग की ओर तथा शांति से क्रांति की ओर बढ़ाना ही प्रगतिवाद है।5
प्रयोगवाद धारा में समाज के शोषित वर्ग, मज़दूर और किसानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गयी, धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक विषमता पर चोट की गयी और हिंदी कविता एक बार फिर खेतों और खलिहानों से जुड़ी। वैयक्तिकता को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करने वाली धारा, जिसमें अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त प्रमुख हैं तथा प्रगतिशील धारा जिसमें गजानन माधव मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह तथा सुदामा पांडेय धूमिल आदि उल्लेखनीय हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना में इन दोनों धराओं का मेल दिखाई पड़ता है। इन दोनों ही धाराओं में अनुभव की प्रामाणिकता, लघुमानव की प्रतिष्ठा तथा बौधिकता का आग्रह आदि प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। साधारण बोलचाल की शब्दावली में असाधारण अर्थ भर देना इनकी भाषा की विशेषता है।
हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित है। स्वतन्त्रता संग्राम और राष्ट्रियता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी पड़ा है। भारत में औद्यौगिकरण का प्रारम्भ होने के साथ अँग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव भी बढ़ा और जीवन में बदलाव आया है।6
प्रतिभासवाद इस सिद्धांत के अनुसार दर्शन का प्रतिभास है। प्रतिभास से अर्थ है - जो भी प्रदत्त वस्तु प्रत्यक्षानुभूति का विषय बनती हो। फलत: प्रकृति विज्ञान के विपरीत युद्ध अपनाते हुए भी सह-प्रत्ययवाद से भी अलग पड़ता है। प्रतिभासवाद ज्ञानमीमांसा से अध्ययन प्रारंभ नहीं करता। दूसरी विशेषता यह है कि प्रतिभासवाद सारतत्वों को विषयवस्तु के रूप में चुनता है। ये सारतत्व प्रतिभासी आदर्श एवं बोधगम्य होते हैं। ये प्रत्याक्षानुभूति की क्रिया में मन में छूट जाते हैं इसीलिए इसे सारतत्वों का दर्शन भी कहते हैं। साभिप्रायिकता इस शुद्ध चेतना से संबंधित होती है। प्रेम, आस्वादन इत्यादि चेतना हैं, ये साभिप्रायिक अनुभव हैं। ये साभिप्रायिक अनुभव जिस वस्तु को ग्रहण करते हैं, उसे संपूर्ण रूप से जान लेते हैं। अनुभव स्वयं शुद्ध क्रिया है। साभिप्रायिक वस्तु और शुद्ध चेतना का साभिप्रायिक संबंध ही यह क्रिया है। आज एक बेहद अमानवीय दबाव है “लूटो नहीं तो लूट लिए जाओगे”, इन्हीं विखंडित और ध्वंसोन्मुख मूल्यों के अक्स आज साहित्य में उभर रहे हैं। इन्हीं मूल्यों का नियामक है आज का हिंदी साहित्य।7
तार्किक भाववाद अपने मूल रूप में विश्लेषणात्मक दर्शन है। भाषा का तार्किक विश्लेषण इत्यादि सिद्धांतों से लगता है कि तार्किक भाववाद वस्तुवादी सिद्धांत है। किंतु ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से यह वर्कले के आत्मगत प्रत्ययवाद के निकट पड़ता है। यद्यपि यह वैज्ञानिक संकेत, प्रतीक, वाक्यों इत्यादि की शब्दार्थ विज्ञान के अनुसार व्याख्या करता है, तथापि इसे बाह्य जगत् में विश्वास नहीं है। तार्किक भाववाद के अनुसार हमें बाह्य जगत् का ज्ञान नहीं हो सकता। हम सिर्फ अपने संवेदों को जान सकते हैं, बस। गुलाब स्वयं में क्या है, नहीं कहा जा सकता। लेकिन वह लाल है, सुगंधित और कोमल है, यही कहा जा सकता है। जिस गुलाब को हम जानते हैं, वह हमारे संवेदों से निर्मित होता है। यहीं इस दर्शन की सीमा समाप्त होती है।
अस्तित्ववाद का मूल स्वर निराशावादी है। जीवन के निषेधात्मक पक्षों पर ही उसमें अधिक विचार किया गया है। सामान्यत: यह स्वीकार किया गया है कि आदमी भाग्याधीन है और चरम रूप से वह अपनी परिस्थितियों से निर्धारित है। उनकी अधिकतर परिभाषाएँ अस्पष्ट और गढ़े हुए मुहावरों के कारण असंप्रेषणीय एवं दुरूह होती गई हैं। एक अर्थ में, इसमें अनुभवों का अतिरेक के साथ वर्णन हुआ है। अस्तित्ववादियों के अनुसार बौद्धिकता वास्तविकता की ओर नहीं ले जाती। ज्ञान की उपलब्धि अनुभव के माध्यम से ही हो सकती है। वास्तविकता अनुभूति गम्य है। प्रेम, घृणा, दया, करुणा, हिंसा इत्यादि मनुष्य की वास्तविक अभिव्यक्तियाँ हैं। अपनी लघुता के ज्ञान के साथ ही आदमी अनुभव का महत्व देने लगता है। फलत: अस्तित्ववाद बुद्धिविरोधी दर्शन है।
उत्तराधुनिकवाद: वर्तमान समय में कुछ पाश्चात्य समाज वैज्ञानिक अपने देश के संदर्भ में आधुनिकवाद के स्तर से एक कदम आगे बढ़ कर आधुनिकोत्तर स्तर की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि पाश्चात्य विकसित देशों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अब लगभग समाप्त हो चुकी है। उनका समाज विकास के एक नई अवस्था में प्रवेश कर चुका है, जिसे वें उत्तराधुनिकतावाद की संज्ञा देते हैं। दूसरे शब्दों में, आज पाश्चात्य देश औद्यौगिक विकास एवं आधुनिकता की चरम सीमा को लाँघ चुका है। पाश्चात्य देशों की सभ्यता और संस्कृति विकास की उस ऊँचाई पर खड़ी है कि उसे आधुनिक की जगह उत्तराधुनिक काल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। उत्तर आधुनिकता की अवधारणा का प्रयोग आधुनिकता जैसी अवधारणा की विरोधी अवधारणा के रूप में किया जाता है।
निष्कर्ष: साहित्य कोई बहस का विषय नहीं है फिर भी साहित्य के उन्नति एवं समृद्धि के लिए बहस की महत्ता को नकारा भी नहीं जा सकता है। आज साहित्य को कुछ लोगों ने राजनीति का अखाड़ा बनाया हुआ है। साहित्य के नाम पर एक गुट दूसरे गुट पर आलोचना के नाम पर अक्सर कीचड़ उछाला करते हैं। ये लोग साहित्य की सृजनात्मक भूमि को भूल राह से भटक गए हैं। साहित्य को इस राजनीति एवं गुटबाजी के दलदल से निकालने के लिए रचनात्मक लोगों की जरूरत हिन्दी साहित्य को है न कि अपने कर्तव्य को भूलकर एक दूसरे के ऊपर लांछन लगाने वाले एवं किसी राजनेता के द्वारा अपने पुस्तक का विमोचन करवाकर राजनीति के क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाने वाले लोगों की। इस प्रकार की प्रवृति के लोगों से हिन्दी साहित्य को बचाना हम सब की जिम्मेवारी है। साधारणतः देखा जाता है कि यूरोपीय देशों में साहित्य एवं साहित्यकारों को अत्यंत सम्मान दिया जाता है। उनके लेखनी का विषय इतना सुस्पष्ट एवं सामाजिक विकास से जुड़ा होता है कि प्राय: हर एक तबके के लोग कम से कम एक तो पत्रिका जरूर पढ़ते है। जिससे वहाँ के साहित्यकारों का भरण-पोषण भी उसकी रचनाओं से हो जाता है, पर हमारे यहाँ तो स्थिति बिलकुल विपरीत है। यहाँ तो पाठक दिनो-दिन बढ़ने के बजाए घटते जा रहे हैं। कारण हमारे यहाँ किसी रचना का विषय रचनात्मक से ज्यादा किसी वर्ग या दल का पिछलग्गू ही बनकर रह गया है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि यहाँ संगोष्ठियों में साहित्यकारों से ज्यादा राजनीतिक दलों से जुड़े लोग देखने को मिलते हैं। अक्सर देखा जाता है कि संगोष्ठियों में उनके ही गुट के लोग आते हैं। वहाँ जैसे विद्वानो की जरूरत नहीं होती है, उन्हे तो अपने गुट को मजबूत करना होता है। शिक्षित वर्ग को यह सोचना होगा कि साहित्य की अपनी गरिमा होती है, उसका हमें सम्मान करना होगा अन्यथा हिन्दी साहित्य जिस प्रकार से गर्त की ओर जा रहा है, इसे रोकना असंभव हो जाएगा। साहित्यकार को साहित्यिक समारोह में आकर या अपने लेखनी में दूसरे एवं व्यर्थ की बातों को त्यागकर सृजनात्मक कार्यों को साकार करना होगा। आज साहित्य में विभिन्न वाद देखने को मिलते हैं – तार्किक-भाववाद, अस्तित्ववाद, प्रतिभासवाद, उत्तर आधुनिकवाद आदि। इस सभी का उद्देश्य है हिन्दी साहित्य की समृद्धि और इसकी जिम्मेवारी समय ही ले सकता है पर सरलता, यथार्थ, सामाजिक एवं सकारात्मक सोच ही सही अर्थों में सच्चे साहित्यकार को चरितार्थ करता है।
संदर्भ ग्रंथ:
1. अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा: डॉ० अरुण होता
2. नए इलाके में: अरुण कमल पृ.23
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास व पुनर्लेखन की समस्याएँ: डॉ० चंद्रकुमार जैन
4. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास: रामकुमार वर्मा
5. हिन्दी साहित्य प्रश्नोत्तरी: गूगल पुस्तक
6. समकालीन हिंदी साहित्य के सतरंगी बिंब - डॉ० अरुण होता
7. समकालीन दर्शन तथा उसकी प्रमुख समस्याएं: “आखरमाला” हिन्दी ब्लाग
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